यही अप्रिल २२ र २३ (वैशाख १० र ११ गते) लेनिन स्मृति शतवार्षिकी, मुल आयोजक समितिको आयोजनामा दुइदिने अन्तरराष्ट्रिय लेनिन गोष्ठी आयोजना गरिएको थियो। उक्त गोष्ठीमा नेपाल, चिन, बाङलादेश र भारतबाट आएका विभिन्न व्यक्तित्वहरुले कार्यपत्र पेश गर्नुभएको थियो। मोहन वैद्य, महेश मास्के, टंक कार्की, हरि रोका सहित भारतबाट आएका अभिनव, चीनको फुदान विश्वविद्यालयका प्रोफेसर जियान गाओ लगायतले पेश गरेका कार्यपत्रहरु माथि विस्तारमा छलफल भएको थियो। तिनै कार्यपत्र मध्ये यहाँ हामीले अभिनवको कार्यपत्र प्रकाशित गरेका छौं। हिन्दीमा लेखिएको यो लामो लेखले लेनिनका विचारहरुबारे चासो राख्ने नेपाली पाठकहरुलाई पनि अर्थराख्ने सोचेर हामीले जस्ताको त्यस्तै प्रकाशित गरेका छौं। बाँकी लेखहरु पनि क्रमशः प्रकाशित गरिने छ। -सम्पादक)
कॉमरेड्स,
आज हम लेनिन के 154वें जन्मदिवस पर उन्हें याद करने के लिए मिल रहे हैं। मैं सबसे पहले यहाँ मौजूद सभी कॉमरेडों को भारत के कॉमरेडों की ओर से लाल सलाम पेश करता हूँ और इस बेहद प्रासंगिक कार्यक्रम का आयोजन करने के लिए उन्हें बधाई देता हूँ।
लेनिन! आज के दौर में इस नाम का हमारे लिए क्या अर्थ है? आज जब दुनिया भर में प्रगति की शक्तियों पर प्रतिक्रिया की ताक़तें हावी हैं, जब दीर्घकालिक संकट में घिरी पूँजीवादी दुनिया में धुर-दक्षिणपंथी और फ़ासीवादी ताक़तों का नये रूप में उभार हो रहा है, जब सामाजिक-जनवाद और संशोधनवाद घृणित पतन के ऐसे गर्त में पहुँच चुके हैं, जिसे देखकर बर्नस्टाइन, काउत्स्की, ख्रुश्चेव और देंग शियाओ-पिंग भी दंग रह गये होते, जब हम साम्राज्यवाद के चरण के एक नये दौर, यानी नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के साक्षी बन रहे हैं; एक ऐसे समय में इस नाम के हमारे लिए क्या निहितार्थ है?
लेनिन का नाम लेना आज हमारे लिए एक अपरिहार्य आवश्यकता है। आज के समय में जब सर्वहारा क्रान्तियों का एक विश्व-ऐतिहासिक चक्र ख़त्म हो चुका है और पूँजीवाद के किसी विकल्प की बात आप अपना मज़ाक बनाये जाने का जोखिम उठाये बग़ैर नहीं कर सकते, तो लेनिन का नाम लेना हमारे द्वारा इस अनकही निषेधाज्ञा के विरुद्ध एक विद्रोह है। उदार बुर्जुआ आम सहमति आपको किसी भी विकल्प की बात करने पर एक निषेधाज्ञा जारी कर चुकी है। उनकी निषेधाज्ञा बहुत ही सरल है: पूँजीवाद बेरोज़गारी, ग़रीबी, युद्ध, पर्यावरणीय विनाश और सामाजिक-आर्थिक अनिश्चितता और असुरक्षा पैदा कर रहा है, लेकिन उसके विकल्प की बात करना आज बेमानी है; क्योंकि बीसवीं सदी में पूँजीवाद का विकल्प खड़ा करने के जो प्रयास हुए वे किसी न किसी आपदा में समाप्त हुए। उनका नतीजा सामाजिक-साम्राज्यवाद और विघटन या सामाजिक-फ़ासीवाद के रूप में सामने आया। इसलिए पूँजीवाद में लाख बुराइयाँ हों, लेकिन उसके विकल्प की बात करने का अर्थ है, उससे भी भयंकर किसी आपदा पर जा पहुँचना। यह एक प्रकार का ‘ब्लैकमेल’ है या ‘वैचारिक फिरौती’ के समान है।
हमें साम्राज्यवादी संस्कृति उद्योग द्वारा व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से दुनिया के अन्त की कल्पना करना तो सिखाया जाता है लेकिन किसी वैकल्पिक दुनिया की कल्पना करने की अनुमति नहीं है! इसके मूल में एक अनैतिहासिक नज़रिया है, जो क्रान्तियों की ऐतिहासिक गति को इरादतन नहीं समझता। किसी भी उदीयमान क्रान्तिकारी वर्ग की प्रथम क्रान्तियाँ या उनके शासन के पहले प्रयोग कभी भी टिकाऊ साबित नहीं हुए हैं। हर बार शुरुआती प्रयोगों के अन्तत: ध्वंस या पतन के बाद पुराना शासक वर्ग अलग-अलग शब्दों में वही बातें दुहराता है, जो आज की बुर्जुआज़ी के भाड़े के कलमघसीट, उसका पूरा उदारतावादी अकादमिया, उसके टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवी दुहरा रहे हैं। ऐसे में, लेनिन का नाम दुहराना हमारे लिए नये सिरे से प्रासंगिक हो गया है।
उनकी निषेधाज्ञा है: ‘पूँजीवाद और उदार बुर्जुआ बहुदलीय संसदीय जनवाद में लाख बुराइयाँ हैं, लेकिन उसके विकल्प की बात करना उससे भी भयंकर बुराइयों में ख़त्म होगा। पूँजीवादी उदार जनवाद इतिहास का अन्त है।’ लेनिन का नाम लेना इस निषेधाज्ञा का उल्लंघन है। यह उल्लंघन आज पुरज़ोर तरीके से करने की ज़रूरत है। लेनिन का नाम सत्य की राजनीति पर एक बार फिर से ज़ोर देने की ज़रूरत को रेखांकित करता है। जैसा कि लेनिन ने कहा था, ‘सच बोलना क्रान्तिकारी होता है।’ लेनिन की यह दलील आज विशेष तौर पर प्रासंगिक है। सत्य और पक्षधरता अन्तर्निहित तौर पर जुड़े हुए हैं। पक्ष लेने और सत्य को पकड़ने में कोई अन्तरविरोध नहीं है, बल्कि सत्य तक पहुँच के लिए पक्षधरता एक पूर्वशर्त होती है। सार्वभौमिक सत्य को किसी भी ठोस परिस्थिति में पक्षधरता के साथ, यानी समस्त शोषितों व उत्पीड़ितों का पक्ष चुनकर ही समझा जा सकता है। सत्य प्रकृति से ही पार्टिज़न होता है, पक्षधर होता है। यह लेनिनवादी आग्रह बुर्जुआ उदारवादी विचारधारा के उस मिथक को नष्ट कर देता है, जिसके अनुसार, पक्षधरता हमें सत्य तक नहीं पहुँचने देती और कोई निष्पक्ष अवस्थिति सम्भव है, जिससे सत्य को उसके शुद्ध-बुद्ध रूप में समझा जा सकता है।
लेनिन का नाम लेने का अर्थ आज दुनिया को बदलने में लगे हुए लोगों के लिए कोई रस्म-अदायगी या किसी क्रान्तिकारी दौर का नॉस्टैल्जिक स्मरण नहीं है। न ही इसका अर्थ वह सबकुछ हूबहू दुहराना है, जो लेनिन ने कहा, लिखा या किया। इसका अर्थ है लेनिन के बुनियादी अप्रोच और पद्धति को दुहराना। उस लेनिन को याद करना जिन्होंने अपने क्रान्तिकारी जीवन में बार-बार आपदाओं, पतनों, विघटनों और संकटों का सामना किया और हर बार बुर्जुआ निषेधाज्ञाओं का उल्लंघन करते हुए ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के आधार पर मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की पुन:स्थापना (refoundation) की। मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान भी स्थैतिक जड़सूत्रों का कोई समुच्चय नहीं है। बदलती दुनिया के अनुसार वह भी लगातार विकसित होता है। लेनिन ने अपने समय में मार्क्सवाद को इसी रूप में विकसित किया।
हर नये संकट के दौर में जब पुराने सन्दर्भ-बिन्दु पुराने पड़ जाते हैं तो वैज्ञानिक विचारधारा को अपना आन्तरिक विस्थापन करना होता है, ताकि वह अपनी सार्वभौमिकता को बनाये रख सके। लेनिन ने अपने समय में इस अन्तर्भूत विस्थापन (immanent displacement) को अंजाम दिया। मार्क्स के दौर में यूरोप में हावी परिस्थितियों के लिए कम्युनिस्ट आन्दोलन के पास रणनीति और आम रणकौशल था। लेकिन साम्राज्यवाद के चरण में कम्युनिस्ट आन्दोलन के पारम्परिक नेतृत्व के पास नयी रणनीति और आम रणकौशल नहीं था। धारा के विरुद्ध तैरते हुए पक्षधरता के साथ और बुर्जुआ निषेधाज्ञाओं का उल्लंघन करते हुए इसका संधान करने का साहस और क्षमता पुराने सामाजिक-जनवादी नेतृत्व के पास नहीं थी। यही उसके पतन का कारण बना। उसके पतन के साथ एक संकट पैदा हुआ। इस संकट का समाधान एक आन्तरिक विस्थापन के साथ ही सम्भव हो सकता था। उन्नत पूँजीवादी यूरोप में क्रान्तिकारी धारा तात्कालिक तौर पर कमज़ोर हो चुकी थी। पूर्व में स्थितियाँ बिल्कुल भिन्न थीं। रूस पश्चिम और पूर्व के सेतु पर एक विशिष्ट राजनीतिक सन्धि-बिन्दु (conjuncture) पर था। मार्क्सवादी विज्ञान और दर्शन को अन्तरविरोधों की इस नयी व्यवस्था में, इस नये ऐतिहासिक सन्दर्भ में विकसित करना, वह अन्तर्भूत विस्थापन था जिसके ज़रिये मार्क्सवादी विज्ञान और दर्शन ने सार्वभौमिक सत्य पर अपने दावे को बनाये रखा। कोई भी विज्ञान इसी के ज़रिये विज्ञान बना रहता है। मार्क्सवाद के इतिहास में लेनिन उस क्रान्तिकारी अन्तर्भूत विस्थापन को अंजाम देने वाले सर्वहारा वर्ग के पहले महान शिक्षक थे। अन्तर्भूत विस्थापन का अर्थ ही यह है कि मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी कोर की रक्षा करते हुए, उसे गुणात्मक रूप से नयी परिस्थितियों में, अन्तरविरोधों की नयी व्यवस्था में, विकसित किया जाय। इसीलिए यह अन्तर्भूत (immanent) होता है।
संक्षेप में कहें, तो आज लेनिन का नाम लेने का अर्थ है साम्राज्यवाद के इस नये दौर में यानी भूमण्डलीकरण के दौर में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट का पुनर्नवीकरण, पुन:स्थापना और नवोन्मेष। लेनिन ने 1902 में जो किया, 1914 में जो किया, अप्रैल 1917 में जो किया और फिर 1920-21 में जो किया वह यही था और आज हमें ठीक इसी अर्थ में लेनिन को दुहराने की ज़रूरत है।
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लेनिन के महान अवदानों को समकालीन तौर पर समझने का यही अर्थ है। इसके लिए यह समझना ज़रूरी है कि लेनिन के बुनियादी महान अवदान क्या थे? लेनिन ने मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान, यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद को किस रूप में बदलती परिस्थितियों में विकसित किया, वह नये क्रान्तिकारी नतीजों तक किस प्रक्रिया में पहुँचे और सर्वहारा क्रान्ति की नयी रणनीति और आम रणकौशल को कैसे सूत्रबद्ध किया, सबसे पहले हमें यह समझना होगा। साथ ही, हमें यह समझना होगा कि आज के युग में यानी साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के दौर में, हम लेनिन की इन शिक्षाओं, इन खोजों को किस रूप में लागू कर सकते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह भी एक अन्तर्भूत विस्थापन, यानी अन्तरविरोधों के समकालीन सन्धि-बिन्दु में मार्क्सवाद के दर्शन और विज्ञान को पुन:स्थापित करके ही सम्भव है। मौजूदा पेपर का विनम्र लक्ष्य यही है कि इन दो प्रश्नों पर कुछ आरज़ी और आरम्भिक प्रेक्षण आपके सामने पेश करे।
मार्क्सवादी अप्रोच और पद्धति पर चलते हुए हम उसी क्रम में लेनिन के अवदानों का समकालीन मूल्यांकन करेंगे, जिस क्रम में हमेशा किया जाना चाहिए। सबसे पहला प्रश्न है दर्शन का प्रश्न। सबसे पहले हम इस पर चर्चा करेंगे कि लेनिन ने मार्क्सवादी दर्शन को किस प्रकार विकसित किया और किस प्रकार इसके पीछे कोई अकादमिक सरोकार नहीं था, बल्कि कम्युनिस्ट आन्दोलन के जीवन्त राजनीतिक प्रश्न थे। उसके बाद हम ऐतिहासिक भौतिकवाद के मार्क्सवादी विज्ञान के क्षेत्र में लेनिन के अवदानों की चर्चा करेंगे, यानी मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का विकास, राज्यसत्ता के मार्क्सवादी सिद्धान्त का विकास और पार्टी सिद्धान्त का विकास। साथ ही, अन्त में, हम एक संक्षिप्त चर्चा कला और विचारधारा के रिश्तों के बारे में लेनिन द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास पर भी करेंगे। लेकिन, जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया, सबसे बुनियादी प्रश्न दर्शन का, यानी विश्वदृष्टि और पद्धतिशास्त्र का होता है। इसलिए हम वहीं से शुरुआत करेंगे।
लेनिन और दर्शन: क्रमिकतावाद, उद्विकासवाद और अभिवृद्धिवाद नहीं, छलाँगें!
जब लेनिन को पता चला कि 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत के बाद जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी ने संसद में वॉर क्रेडिट्स के लिए वोट किया है, यानी उसने जर्मनी की बुर्जुआज़ी का युद्ध में साथ देने का निर्णय किया है, तो उन्हें यक़ीन नहीं हुआ। उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि रूसी गुप्त पुलिस ने अख़बार की रपटों के साथ कुछ गड़बड़ की है। लेकिन जब यह सूचना पुष्ट हो गयी, तो लेनिन पहले-पहल आश्चर्य में थे। लेनिन ने क्या किया? उन्होंने तत्काल आनन-फ़ानन में कोई विस्तृत जवाब या आलोचना लिखने का काम नहीं किया। युद्ध के शुरू होने और जर्मन सामाजिक-जनवादियों की ग़द्दारी के बाद लेनिन ने तत्काल बर्न, स्विट्ज़रलैण्ड में रूसी सामाजिक-जनवादी क्रान्तिकारियों के एक ग्रुप के साथ मिलकर एक प्रस्ताव तैयार किया (‘यूरोपीय युद्ध में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद के कार्यभार’) जो यूरोप व रूस के सामाजिक-जनवादियों के बीच वितरित हुआ। इसमें लेनिन ने बुनियादी अन्तरराष्ट्रीयतावादी अवस्थिति से जर्मनी व अन्य कई विकसित यूरोपीय पूँजीवादी देशों के सामाजिक-जनवाद द्वारा राष्ट्रवादी व कट्टरतावादी अवस्थिति अपनाये जाने की आलोचना पेश की। यह पहली बार 1929 में प्रकाशित हुआ। यूरोपीय सामाजिक-जनवाद की ग़द्दारी पर लेनिन का पहला लेख जो उसी समय प्रकाशित हुआ वह नवम्बर 1914 में सोत्सियाल देमोक्रैत में प्रकाशित हुआ: समाजवादी इण्टरनेशनल की अवस्थिति और कार्यभार।
लेकिन लेनिन की इस विषय पर समूची लाइन 1915 से ज़्यादा मुखरता और स्पष्टता से आयी। इसकी वजह थी। यूरोपीय सामाजिक-जनवाद के संकट और पतन के कारणों को समझना लेनिन के सामने एक बड़ा प्रश्न था। इसके लिए लेनिन दर्शन के क्षेत्र में जाते हैं। वह सितम्बर 1914 से लेकर मई 1915 के बीच स्विट्ज़रलैण्ड की बर्न लाइब्रेरी में बैठकर अपने आपको दर्शन की पढ़ाई में झोंक देते हैं। इस बीच वह हेगेल का साइंस ऑफ़ लॉजिक और एनसाइक्लोपीडिया पढ़ते हैं और उनकी रचना इतिहास का दर्शन का भी अधूरा अध्ययन करते हैं (उसके अध्ययन के बीच में ही लेनिन एक नोट में लिखते हैं कि इस विषय में मार्क्स और एंगेल्स ने जो खोजें की हैं, वे निर्णायक हैं) और उसके बाद मई के उत्तरार्द्ध से लेकर जून 1915 के बीच दूसरे इण्टरनेशनल और काउत्स्की की अगुवाई वाले यूरोपीय सामाजिक-जनवाद की व्यवस्थित आलोचना लिखते हैं: दूसरे इण्टरनेशनल का पतन। उनकी यही आलोचना साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की चरम अवस्था, साम्राज्यवाद और समाजवाद में फूट और सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की में जारी रहती है और उसके नये आयाम खुलते हैं। वस्तुत:, लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को इसी प्रक्रिया में विकसित किया और उनकी अप्रैल थीसिस भी इसी चिन्तन का एक हिस्सा थी। अप्रैल थीसिस पर हुए प्रारम्भिक विवाद से हम सब वाक़िफ़ हैं और किस तरह अन्त में लेनिन ने तीखे संघर्ष के बाद समूचे बोल्शेविक नेतृत्व को सशस्त्र बग़ावत पर सहमत किया, इसे भी जानते हैं। 7 नवम्बर 1917 (25 अक्टूबर 1917) को शीत प्रासाद पर धावे के साथ बुर्जुआ आरज़ी सरकार और साथ में बुर्जुआ राज्यसत्ता को रूस के मज़दूर वर्ग ने उखाड़ फेंका। लेकिन 7 नवम्बर 1917 को शीत प्रासाद पर धावे में जो कुछ हुआ उसके वैचारिक बीज सितम्बर 1914 से मई 1915 के बीच बर्न पुस्तकालय की स्तब्ध शान्ति, किताबों के ढेर और हज़ारों पेज के नोट्स के बीच पड़े थे।
इसी प्रकार 1908 में भी, जब माख के नवकाण्टवादी प्रभाव में रूस में बोग्दानोव, लूनाचार्स्की और गोर्की जैसे बोल्शेविक आये और ‘ओट्ज़ोविस्ट दार्शनिकों’ ने अपने नवकाण्टवादी विचलन के साथ भौतिकवाद पर हमले शुरू किये तो भी लेनिन ने अपने आपको नेशनल लाइब्रेरी में बन्द कर लिया था और अत्यन्त तीव्र गति से प्रकृति विज्ञान और दर्शन का अध्ययन कर 1909 में भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना पुस्तक प्रकाशित की। उस समय में रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन संकट का शिकार था। स्तोलिपिन की प्रतिक्रिया का दौर जारी था। ऐसे में, बहुत-से कम्युनिस्टों को इस बात पर ताज्जुब हुआ था कि लेनिन ने इस दार्शनिक विचलन का तत्काल उत्तर देने में इतना वक़्त ख़र्च करना अनिवार्य क्यों समझा था? इसके बारे में इल्येंकोव के ये शब्द बिल्कुल सच बयान करते हैं:
“जिस गति से भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना लिखी गयी थी और प्रकाशन के लिए तैयार की गयी थी और साथ ही इसके सैद्धान्तिक प्रभाव की शक्ति और इसकी साहित्यिक शैली में निहित उग्र, सर्वनाशी आवेग की व्याख्या निम्न परिस्थिति से की जा सकती है: उस समय लेनिन एकमात्र क्रान्तिकारी मार्क्सवादी थे जो इस बात को समझते थे कि समाजवादी क्रान्ति, सामाजिक और वैज्ञानिक प्रगति के भविष्य के लिए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का बहुत भारी महत्व है। वह सबसे पहले तो आने वाले राजनीतिक संघर्ष की रणनीति और रणकौशल के वैज्ञानिक विस्तार व सूत्रीकरण के लिए इसे महत्वपूर्ण मानते थे, और इसकी प्रगति की वस्तुगत, भौतिकवादी और आर्थिक स्थितियों के ठोस विश्लेषण के लिए इसे महत्वपूर्ण मानते थे।
“जो माखवादी रोग से ग्रस्त से वे इस संघर्ष के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त थे। इसीलिए ‘आध्यात्मिक बकवास’ की इस किस्म में क्रान्ति के लिए भारी नुकसान था। क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के अपने ही घर में इस अवधारणात्मक तोड़-फोड़ के सभी ख़तरों को समकालीन सामाजिक-जनवादी ‘नेता’, मार्क्स व एंगेल्स की सैद्धान्तिक विरासत के आधिकारिक ‘रखवाले’ नहीं समझ पा रहे थे।” (इवाल्ड इल्येंकोव. 2018. इंटेलिजेण्ट मटीरियलिज़्म: एसेज़ ऑन हेगेल एण्ड डायलेक्टिक्स, ब्रिल, पृ. 231, अंग्रेज़ी संस्करण, अनुवाद हमारा)
इसी प्रकार, साम्राज्यवाद को पूँजीवाद के एक नये चरण के रूप में समझने का जीवन्त प्रश्न जब लेनिन के सामने उपस्थित हुआ, तो उन्होंने अपने आपको ज़्यूरिख़ पुस्तकालय में कैद कर लिया था और राजनीतिक अर्थशास्त्र और दर्शन के जगत में इस राजनीतिक ‘निष्क्रमण’ (withdrawal) का उत्पाद था लेनिन की महान रचना साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की चरम अवस्था।
जो बात मैं यहाँ कहने की कोशिश कर रहा हूँ वह यह है: जब भी आन्दोलन के समक्ष कोई गम्भीर प्रश्न उपस्थित होता था, हर उस मौके पर लेनिन नयी परिस्थितियों में मार्क्सवाद की पुन:स्थापना के लिए दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्रीय मूल तक जाते थे और अन्तरविरोधों की नयी व्यवस्था के अनुसार मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान को विकसित करते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस काम को धारा के विरुद्ध तैरकर ही किया जा सकता था और इसीलिए हर ऐसे संकट के मौके पर लेनिन को बोल्शेविक पार्टी के भीतर ही पर्याप्त संघर्ष करना पड़ता था।
अब हम लेनिन के दार्शनिक चिन्तन के कुछ महत्वपूर्ण मील के पत्थरों पर विचार करने के माध्यम से मार्क्सवादी दर्शन में उनके योगदान को समझते हैं। मार्क्सवादी दर्शन में उनके योगदान को मूलत: दो मील के पत्थरों से समझा जा सकता है। पहला है 1909 में भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना का प्रकाशन और दूसरा है 1914-1915 की दार्शनिक नोटबुक्स जो लेनिन की संग्रहीत रचनाओं का खण्ड-38 है। इन दो शिखरों का आरोहण कर हम लेनिन की समूची दार्शनिक यात्रा के नोडल बिन्दुओं या knottenpunkte की पहचान कर सकते हैं।
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माख़वादियों के नवकाण्टवाद के विरुद्ध संघर्ष में लेनिन दर्शन और विज्ञान के रिश्तों के बारे में मार्क्सवादी समझदारी को विकसित करते हैं। लेनिन बताते हैं कि पहले दर्जे के प्रकृति वैज्ञानिक अपनी ठोस वैज्ञानिक खोजों के बारे में जब दार्शनिक शब्दावली में बात करते हैं, तो वे ‘आधिकारिक दर्शन’ की शब्दावली को ही इस्तेमाल कर सकते हैं, क्योंकि उनकी पहुँच ही उस तक होती है। नतीजतन, उनकी वैज्ञानिक खोज और उसके बारे में उनके दार्शनिक सामान्यीकरण के बीच एक अन्तर होता है। मसलन, जब एक प्रकृति वैज्ञानिक कहता है ‘पदार्थ अब ग़ायब हो चुका है’, तो वह वास्तव में अपने वैज्ञानिक खोजों के ज़रिये यथार्थ को और अच्छी तरह से समझने का ही प्रयास कर रहा होता है, लेकिन अपनी खोजों का दार्शनिक अमूर्तन और सामान्यीकरण करने की उसके पास न तो क्षमता होती है और न ही शब्दावली। लेनिन लिखते हैं:
“इनमें से एक भी प्रोफ़ेसर पर, जो कि रसायनविज्ञान, इतिहास या भौतिकशास्त्र के विशेष क्षेत्रों में बेहद मूल्यवान योगदान करने में सक्षम हैं, उस वक़्त रंचमात्र भी भरोसा नहीं किया जा सकता जब बात दर्शन की हो। क्यों? उसी वजह से जिससे राजनीतिक अर्थशास्त्र के किसी भी प्रोफेसर पर, जो तथ्यात्मक और विशिष्टीकृत जाँच के क्षेत्र में बहुत मूल्यवान योगदान करने में सक्षम हो सकता है, तब रंचमात्र भरोसा नहीं किया जा सकता जब बात राजनीतिक अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धान्त की हो। क्योंकि, आधुनिक समाज में, राजनीतिक अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धान्त भी उतना ही पक्षधर विज्ञान है, जितना कि ज्ञान-मीमांसा।” (लेनिन. 1962. कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-14, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 342, अनुवाद हमारा)
लेकिन जब कोई पेशेवर दार्शनिक ऐसी बात करता है (कि पदार्थ अब समाप्त हो गया है) तो वह निश्चित तौर पर अपने दार्शनिक पूर्वाग्रहों को दर्शन में घुसाने के लिए प्रकृति वैज्ञानिक की दार्शनिक ग़लतियों और भाषा के असावधान इस्तेमाल का फ़ायदा उठा और उसके प्रतिक्रियावादी दर्शन का सचेतन प्रतिनिधि नहीं क़रार देगा। लेकिन यही काम जब कोई पुरोहित करता है, तो मामला बिल्कुल अलग हो जाता है! लेनिन लिखते हैं:
“…भाववादी दार्शनिक प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की मामूली से मामूली ग़लती, अभिव्यक्ति में मौजूद छोटी से छोटी अस्पष्टता को पकड़ते हैं और उनका इस्तेमाल आस्थावाद के अपने नवीनीकृत समर्थन को सही ठहराने के लिए करते हैं।” (लेनिन. 1962. कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-14, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 283, अनुवाद हमारा)
इस बहस की प्रक्रिया में लेनिन ने स्पष्ट किया कि विज्ञान और दर्शन के बीच का रिश्ता क्या है। लेनिन ने बताया कि निश्चित तौर पर विज्ञान की खोजों के बिना दर्शन का विकास नहीं हो सकता है। क्योंकि दर्शन और कुछ नहीं बल्कि विज्ञान की सभी शाखाओं में की गयी खोजों का अमूर्तन, सामान्यीकरण और समाहार है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि दर्शन हमेशा विज्ञान की पूँछ पकड़कर चलता है। वजह यह कि विज्ञान की विभिन्न शाखाएँ प्रकृति, समाज और विचार के जगत के विभिन्न विशिष्ट अंगों का अध्ययन करती हैं और ठीक इसी आधार पर उन्हें वर्गीकृत किया जाता है। चूँकि उनका इस प्रकार विशेषीकरण किया गया होता है, इसलिए वे समूची दुनिया के सर्वाधिक सामान्य नियमों का संधान नहीं कर सकतीं। यह काम केवल दर्शन ही कर सकता है क्योंकि वह प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में होने वाली खोजों के अमूर्तन और सामान्यीकरण के ज़रिये दुनिया के सर्वाधिक सामान्य नियमों को उद्घाटित करता है। इन नियमों को ही हम आम तौर पर सामग्रिक तौर पर विश्वदृष्टि और पद्धति या दर्शन कहते हैं।
अनुभवसिद्ध-आलोचकों की मूल ग़लती को चिह्नित करते हुए लेनिन बताते हैं कि वे भौतिकवाद के ‘रूप’ और ‘अन्तर्वस्तु’ में अन्तर नहीं कर पाते हैं। भौतिकवाद के ‘रूप’ का रिश्ता ठोस विज्ञानों यानी प्रकृति विज्ञानों की उन खोजों से है जो पदार्थ के ठोस रूपों के बारे में हमारी समझदारी को विकसित करती हैं, यानी भौतिकता या भौतिक यथार्थ की हमारी समझदारी को विकसित करती हैं, मसलन, अणु, इलेक्ट्रॉन, फील्ड आदि के सिद्धान्त। ऐसी हर खोज अनिवार्यत: ऐतिहासिक तौर पर सीमित होती है क्योंकि हर नयी खोज के साथ विज्ञान अपने पुराने सामान्यीकरणों को रद्द करता है या उन्हें संशोधित करता है। यह स्वाभाविक है। यह विज्ञान की गति है। लेकिन भौतिकवाद की ‘अन्तर्वस्तु’ का रिश्ता इस बात को समझने से है कि भौतिक यथार्थ और उसके संज्ञान (cognition) के बीच क्या रिश्ता है। भौतिक यथार्थ चेतना से स्वतन्त्र अस्तित्वमान होता है और चेतना उसके संज्ञान को व्यवहार के ज़रिये विकसित कर सकती है और अगर उसके बारे में उसने वैज्ञानिक समझदारी विकसित की तो वह उसे बदल भी सकती है। भौतिकवाद की यह ‘अन्तर्वस्तु’ प्रकृति विज्ञान की किसी खोज के ज़रिये नहीं बदलती। यानी यह बात कि भौतिक यथार्थ अस्तित्वमान होता है, वह मनुष्य की चेतना से स्वतन्त्र अस्तित्वमान होता है, केवल और केवल व्यवहार के ज़रिये मनुष्य इस भौतिक यथार्थ और उसकी गति के नियमों के बारे में सही विचारों को विकसित कर सकता है और केवल तभी वह भौतिक यथार्थ को बदल भी सकता है। भौतिक यथार्थ और चेतना के बीच के इस रिश्ते की सही समझदारी, यानी अस्तित्व-मीमांसा (ontology) और ज्ञान-मीमांसा (epistemology) के बीच के रिश्तों की यह सही समझदारी ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का आधार है। माखवादी यानी रूस में ओट्ज़ोविस्ट दार्शनिक जैसे कि बोग्दानोव, बज़ारोव व सुवोरोव आदि भौतिकवाद को विकसित करने के नाम पर उसकी इस अन्तर्वस्तु पर हमला कर रहे थे और लेनिन ने इसी हमले का जवाब दिया। इस जवाब के साथ मार्क्सवादी दर्शन ने एक नये ऐतिहासिक सन्दर्भ में भाववाद, अनुभववाद, प्रत्यक्षवाद और अज्ञेयवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को विकसित किया, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की रक्षा और उसका विकास किया और इन विचारधाराओं के प्रतिक्रियावादी चरित्र को स्पष्ट किया।
लेनिन ने यह भी दिखलाया कि यह इत्तेफ़ाक नहीं था कि जो कर्ता (subject) और वस्तु (object) और चेतना और पदार्थ की बीच का रिश्ता नहीं समझते थे, यानी जो अस्तित्व और ज्ञान के बीच सम्बन्ध को नहीं समझते थे, ठीक वही लोग क्रान्ति के ठीक पहले और उसके बाद “वामपंथी” विचलन और साथ ही दक्षिणपंथी विचलन का शिकार भी हुए। चाहे हम बोग्दानोव के नुकसानदेह ‘सन्तुलन के सिद्धान्त’ (theory of equilibrium) की बात करें जिसने क्रान्ति को पर्याप्त नुकसान पहुँचाया, या प्रोलेतकुल्त के वामपंथी विचलन की बात करें, माखवादियों ने हमेशा ही ऐसी भूलें कीं। यह उनके दार्शनिक मूल से पैदा होने वाली राजनीतिक ग़लतियाँ थीं।
इससे पहले मार्क्स और एंगेल्स ने भी अपने दौर में काण्टीय व्याख्याओं के प्रभाव में पैदा हुए रुझानों का विरोध किया था। इनमें कॉनरैड श्मिट और एडवर्ड बर्नस्टाइन जैसे लोग थे। इन्होंने काण्ट का अनुसरण करते हुए यह कहा कि विज्ञान का क्षेत्र सीमित है और वह केवल परिघटनाओं (phenomena) के बारे में अवधारणाएँ विकसित कर सकता है, लेकिन उन परिघटनाओं के सारतत्व (essence), यानी वस्तु-निज-रूप (object-in-itself) के बारे में वह कुछ भी कहने का अधिकार नहीं रखता। मनुष्य के इन्द्रियानुगत बोध के आगे विश्व के अस्तित्व के बारे में कुछ भी कहना संज्ञान के सिद्धान्त यानी ज्ञान-मीमांसा और उसके अंग के रूप में तर्कशास्त्र का काम नहीं है, वह अधिभूतवाद (metaphysics) का काम है। अधिभूतवाद ही ज्ञान की इस अनुल्लंघनीय सीमा के आगे मौजूद अज्ञेय या अनुभवातीत (transcendental) के बारे में कुछ भी कहने का अधिकार रखता है, जिसका मूलाधार है आस्था, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकती है।
कोई भी व्यक्ति अपनी “अनुभूतियों”, “कल्पनाओं” आदि के आधार पर ऐसे विषयों के बारे में, जैसे कि ईश्वर, नैतिकता, आचार आदि के बारे में कोई भी विचार रख सकता है, जिसे विज्ञान न तो सिद्ध कर सकता है और न ही ख़ारिज कर सकता है। यही अनुभवातीत जगत है, जो भाववाद का आधार बनता है। इसी के आधार पर श्मिट और बर्नस्टाइन ने भी मार्क्स और एंगेल्स की वैज्ञानिक विश्वदृष्टि को ख़ारिज किया और उसे उनके ‘वैज्ञानिक आर्थिक सिद्धान्त’ से अलग कर दिया। यही काम रूसी माख़वादी एक नये सन्दर्भ में, यानी प्रकृति विज्ञान की नयी खोजों की दार्शनिक दुर्व्याख्या के आधार पर कर रहे थे, जिसका आधार निश्चित तौर पर स्वयं असावधान वैज्ञानिकों जैसे कि स्वयं माख़ ने तैयार किया था, जिसकी वजह लेनिन ने स्वयं ही बतायी थी: प्रकृति वैज्ञानिकों पर ‘आधिकारिक’ यानी बुर्जुआ यांत्रिक व प्रत्यक्षवादी दर्शन का प्रभाव। उनके पास वैज्ञानिक खोजों की व्याख्या करने के उपयुक्त दार्शनिक उपकरण ही मौजूद नहीं होते हैं। लेकिन जब यही काम ‘पेशेवर दार्शनिक’ करते हैं, तो उन्हें दोषमुक्त नहीं किया जा सकता है। क्योंकि वे आधुनिक विज्ञान की नयी खोजों की स्वयं वैज्ञानिकों द्वारा की गयी नौसिखुआ दार्शनिक व्याख्याओं का इस्तेमाल कर अपने टुटपुँजिया दार्शनिक पूर्वाग्रहों के आधार पर भाववादी व्याख्याओं को जन्म देते हैं।
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दर्शन के क्षेत्र में लेनिन के योगदान का एक नया आयाम 1914-15 में खुलता है। बहुत-से अकादमीशियनों ने बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से ही ऐसे दावे किये हैं कि 1908-09 के लेनिन अभी पर्याप्त द्वन्द्ववादी नहीं थे और भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना में अभी वे प्लेखानोव के उद्विकासवादी (evolutionist) यान्त्रिक भौतिकवाद के असर में ही थे, और द्वन्द्ववाद की उनकी समझदारी 1914-15 में हेगेलीय मूल तक जाकर बनी। यह मज़ाकिया बात है जो कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं कह सकता है जिसने 1909 की लेनिन की पुस्तक पढ़ी हो। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रोजर गराउडी, बीसवीं सदी के मध्य में राया दुनायेव्स्काया, यूगोस्लाव प्रैक्सिस स्कूल से लेकर आज के समय में माइकल लोवी, स्टाथिस कूवेलाकिस से लेकर स्लावोय ज़िज़ेक तक ऐसी एक छवि पेश करने की कोशिश करते हैं कि 1909 और 1914 के लेनिन में, यानी भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना वाले लेनिन और 1914 के दार्शनिक नोटबुक्स वाले लेनिन में कोई अन्तर या विच्छेद है। लेकिन यह अकादमीशियनों की कल्पना की उड़ान अधिक प्रतीत होती है। यह अकादमीशियनों की विशिष्टता होती है कि वे किसी समय के प्रधान अन्तरविरोध को कभी नहीं समझ पाते और मूर्ख किस्म का अमूर्त चिन्तन करते हैं। 1908-09 में प्रधान पहलू था मार्क्सवादी दर्शन, यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, के मूल भौतिकवादी कोर पर नवकाण्टीय अज्ञेयवादी व प्रत्यक्षवादी हमले का जवाब देना। वहाँ सबसे पहले भौतिकवाद की मूल ‘अन्तर्वस्तु’ की रक्षा ज़रूरी थी, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की थी। लिहाज़ा, वहाँ व्यवहार के ज़रिये चेतना की रूपान्तरणकारी भूमिका पर चर्चा गौण थी।
1914 का दार्शनिक सवाल उस समय के जीवन्त राजनीतिक प्रश्नों को हल करने की प्रक्रिया में ही पैदा हुआ। दूसरे इण्टरनेशनल के क्रमिकतावाद, उद्विकासवाद, और अर्थवाद और पूँजीवाद द्वारा उसके सहयोजित कर लिये जाने के मूल में क्या था? ऐसा क्यों हुआ? लेनिन ने इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए 1914 में दर्शन के गहन अध्ययन की नये स्तर पर शुरुआत की और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि यूरोपीय सामाजिक-जनवाद और दूसरे इण्टरनेशनल के राजनीतिक पतन के मूल में जो दार्शनिक समस्या थी वह थी द्वन्द्ववाद की समझदारी का अभाव, प्रत्यक्षवाद व अनुभववाद का प्रभाव, यांत्रिक भौतिकवाद का प्रभाव। 1908-09 का जीवन्त राजनीतिक सवाल था नवकाण्टवाद के प्रभाव में माखवादी धारा की चुनौती जो मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी भौतिकवादी कोर पर हमला कर रही थी और साथ ही प्रत्यक्षवाद, अधिभूतवाद और अनुभववाद को बल दे रही थी। यहाँ मूल प्रश्न था पदार्थ जगत के चेतना से स्वतन्त्र अस्तित्व को नये सिरे से स्थापित करना। चेतना पदार्थ जगत की सही समझदारी के ज़रिये किस तरह से पदार्थ जगत को बदल सकती है, यह बहस का मूल मुद्दा नहीं था। हालाँकि, भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना में लेनिन ने इस पहलू को भी स्पष्ट किया था। 1914 में, 1908-09 से भिन्न, सवाल था यान्त्रिक भौतिकवाद से पैदा होने वाले अर्थवाद, उद्विकासवाद और क्रमिकतावाद पर चोट करना और चेतना की भूमिका को रेखांकित करना। 1902 में क्या करें? के लेखन के दौर में भी लेनिन ने मज़दूर आन्दोलन में चेतना के प्रश्न की केन्द्रीयता को रेखांकित किया था क्योंकि उस समय भी अर्थवाद का एक विशिष्ट संस्करण आन्दोलन पर हावी था। लेकिन 1914 में लेनिन एक नये स्तर पर इस संघर्ष को चलाते हैं और इसी प्रक्रिया में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को एक नये स्तर पर विकसित करते हैं।
जिस संकट ने प्रथम विश्वयुद्ध में यूरोपीय सामाजिक-जनवाद को घेर लिया था उसकी पूर्वपीठिका तो पहले ही तैयार हो गयी थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही यानी साम्राज्यवाद के युग की शुरुआत के बाद से ही, विशेष तौर पर उन्नत पूँजीवादी देशों में सामाजिक-जनवाद अर्थवादी विचलन का गम्भीर रूप से शिकार होना शुरू हो गया था और इसके अंग के तौर पर उसने बुर्जुआ व्यवस्था द्वारा उपस्थित राजनीतिक क्षितिज को स्वीकार करना शुरू कर दिया था। साम्राज्यवाद के दौर में यूरोपीय मज़दूर वर्ग के भीतर से एक कुलीन श्रमिक वर्ग के पैदा होने की स्थिति में यूरोपीय सामाजिक-जनवाद का पतन हुआ और उसने पूँजीवादी व्यवस्था के दायरों में अपने आपको अनुकूलित कर लिया। इस संकट का दूसरा निर्देशांक (co-ordinate) था यूरोपीय सामाजिक-जनवादी आन्दोलन में मार्क्स और एंगेल्स के बाद के दौर में द्वन्द्वात्मक समझदारी का ह्रास और यान्त्रिक भौतिकवाद का असर। मिसाल के तौर पर, बर्नस्टाइन के ही समान काउत्स्की ने हेगेल के प्रति अपने तिरस्कार को कभी छिपाया नहीं था और यह हेगेल के भाववाद के प्रति लक्षित भाव ही नहीं था, बल्कि उनकी द्वन्द्ववादी पद्धति के प्रति लक्षित भाव भी था, जिसे द्वितीय इण्टरनेशनल के यूरोपीय नेतृत्व के कई लोग हेगेलीय रहस्यवाद (mysticism) मानते थे। काउत्स्की ने इसी वजह से कहा था कि मार्क्सवाद “कोई दर्शन नहीं है, बल्कि आनुभविक विज्ञान है, समाज की एक विशिष्ट समझदारी है।” प्लेखानोव का आम तौर पर दर्शन के प्रति ऐसा भाव नहीं था, लेकिन वह भी द्वन्द्ववाद के मामले में बेहद कमज़ोर समझदारी रखते थे, जैसा कि लेनिन ने स्वयं कहा था।
लेनिन अपने अध्ययन से इस नतीजे पर पहुँचे थे कि द्वन्द्वात्मक समझदारी के अभाव के कारण दूसरे इण्टरनेशनल और समूचे यूरोपीय सामाजिक-जनवाद के भीतर क्रमिकतावाद (incrementalism), उद्विकासवाद और अर्थवाद की समझदारी पनपी। विच्छेद (rupture), छलाँग (leaps), और आपदा (catastrophe) की द्वन्द्ववादी समझ अनुपस्थित थी। विकास निरन्तरतापूर्ण तरीके से और क्रमिकता के साथ होता है, उसमें कोई छलाँग नहीं होती। ठीक यही समझदारी थी जो बर्नस्टाइन को सामाजिक क्रान्ति का सिद्धान्त त्यागने तक ले गयी थी, ठीक यही समझदारी बीसवीं सदी की शुरुआत में रूसी अर्थवादियों और “कानूनी” मार्क्सवादियों को ट्रेडयूनियनवाद और अर्थवाद की ओर ले गयी थी और ठीक यही समझदारी प्रथम विश्वयुद्ध के समय द्वितीय इण्टरनेशनल के यूरोपीय नेतृत्व को साम्राज्यवाद के साथ समझौते करने, अति-साम्राज्यवाद के सिद्धान्त, पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को स्वीकार करने, सुधारवाद और संशोधनवाद की ओर ले गयी थी।
इसी समस्या ने लेनिन को बाध्य किया कि वह उस कार्रवाई को एक नये स्तर पर, नये सन्दर्भ-बिन्दुओं पर और नये निर्देशांकों के बीच नये सिरे से दुहराएँ जो मार्क्स व एंगेल्स ने अपने समय में की थी: हेगेलीय द्वन्द्ववाद का भौतिकवादी उत्क्रमण (reversal)। लेनिन ने सितम्बर 1914 से मई 1915 के बीच ठीक यही किया। भाववाद के विरुद्ध भौतिकवाद का संघर्ष और यान्त्रिकता और अधिभूतवाद के विरुद्ध द्वन्द्ववाद का संघर्ष कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है, जिसे बस एक बार अंजाम दिया जाना होता है। यह विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति है। जब तक समाज में वर्ग रहेंगे, जब तक वर्ग संघर्ष मौजूद रहेगा, तब तक यह विचारधारात्मक संघर्ष भी बार-बार दुहराया जायेगा। वर्ग संघर्ष के नये स्तरों पर पहुँचने के साथ, प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों की हर नयी खोज के साथ और हर नये क्रान्तिकारी परिवर्तन के साथ यह संघर्ष बार-बार नये स्तर पर दुहराया जायेगा और इसी के ज़रिये द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद बदलती दुनिया के साथ नये स्तर पर विकसित हो सकता है। इस मायने में हेगेल का लेनिन द्वारा एक नये ऐतिहासिक सन्दर्भ और नये स्तर पर किया गया भौतिकवादी उत्क्रमण मार्क्सवादी दर्शन के इतिहास के लिए एक युगान्तरकारी घटना थी। यह मार्क्सवादी दर्शन की पुन:स्थापना थी।
सवाल हेगेल की ध्वस्त हो चुकी दार्शनिक व्यवस्था का पुनर्निमाण नहीं था। यह दर्शन और विश्व, सिद्धान्त और व्यवहार का क्रान्तिकारी प्रक्रिया की नयी परिस्थितियों में आमूलगामी तौर पर नये रूप में और नये स्तर पर सम्बन्ध पुनर्स्थापित करते हुए हेगेलीय द्वन्द्ववाद का भौतिकवादी उत्क्रमण करना था, ताकि उस क्रान्तिकारी प्रक्रिया के ज़रिये मार्क्स के शब्दों में एक ऐसे स्तर पर पहुँचा जा सके, जहाँ ‘दर्शन विश्व बन जाता है और विश्व दर्शन बन जाता है’ (एपीक्यूरस के दर्शन के विषय में मार्क्स के नोट्स से)। दूसरे शब्दों में, पहले सामाजिक व्यवहार के आधार पर दर्शन विश्व की एक वैज्ञानिक समझदारी विकसित करता है और फिर सामाजिक व्यवहार के ही ज़रिये इस समझदारी के आधार पर विश्व को बदल डालता है।
हेगेल के अध्ययन के आधार पर लेनिन किन बुनियादी नतीजों पर पहुँचे इन्हें सलीके से समझना हमारे लिए उपयोगी होगा। लेनिन का पहला नतीजा यह था कि दर्शन के क्षेत्र में तर्कशास्त्र (चिन्तन के औपचारिक नियम), अस्तित्व-मीमांसा (भौतिक जगत, यानी, वस्तु-निजरूप की पड़ताल) और ज्ञान-मीमांसा या संज्ञान के सिद्धान्त (ज्ञान के उद्भव और विकास के नियम) के बीच मौजूद यान्त्रिक सीमा-रेखाओं का कोई अर्थ नहीं है। पहली बात तो यह है कि विचारों की दुनिया के विकास के बारे में केवल परिघटना (प्रतीतिगत यथार्थ) के विवरण से कुछ भी सिद्ध नहीं होता, जब तक कि हम सत्य (सही विचारों) का प्रश्न न उठाएँ। इसलिए ‘मस्तिष्क का परिघटना विज्ञान’ या ‘मनोविज्ञान’ की ज्ञान-शाखाओं का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं है। दूसरी बात, ठीक इसीलिए तर्कशास्त्र का भी कोई अलग अस्तित्व नहीं हो सकता है, क्योंकि चिन्तन के कोई स्वतन्त्र नियम नहीं हो सकते। तीसरी बात, ठीक इसीलिए तर्कशास्त्र ज्ञान-मीमांसा में ही समाहित हो जाता है। चौथी बात, ज्ञान-मीमांसा में ही अस्तित्व-मीमांसा भी समाहित हो जाती है क्योंकि ज्ञान का रिश्ता केवल विचारों की प्रतीति या उसके परिघटनात्मक विवरण से नहीं होता बल्कि सत्य, या सही विचारों, से होता है और सही विचारों का विकास केवल ठोस भौतिक जगत के नियमों को समझकर ही किया जा सकता है। और पाँचवी बात (और सम्भवत: क्रान्तिकारियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात) इन सभी कृत्रिम रूप से विभाजित ज्ञान की शाखाओं का समेकन (integration) केवल और केवल सामाजिक व्यवहार के ज़रिये हो सकता है। इस समेकन को आम तौर पर लेनिन तर्कशास्त्र (logic) कहते हैं, जिसमें ज्ञान-मीमांसा और अस्तित्व-मीमांसा, विचारों और पदार्थ-जगत का अधिभूतवादी व नवकाण्टीय विभाजन भी समाप्त हो जाता है और चूँकि यह समेकन सामाजिक व्यवहार के आधार पर होता है, इसलिए यान्त्रिक भौतिकवादी उद्विकास और क्रमिकतावाद का भी खण्डन हो जाता है। लेनिन लिखते हैं:
“तर्कशास्त्र केवल विचारों के बाह्य रूपों का विज्ञान नहीं है बल्कि ‘सभी भौतिक, प्राकृतिक और आध्यात्मिक चीज़ों’ के विकास के नियमों का नाम है, यानी, दुनिया और इसके संज्ञान की समूची ठोस अन्तर्वस्तु के विकास के नियमों का, यानी दुनिया के ज्ञान के इतिहास के निष्कर्ष का नाम है।” (लेनिन. 1976. कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्यूम 38, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 92-93, अनुवाद हमारा)
यहाँ पर हेगेल का सुसंगत द्वन्द्ववाद यान्त्रिक भौतिकवाद के मुकाबले मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के कहीं ज़्यादा करीब है। इसीलिए लेनिन कहते हैं कि (हेगेल का) सुसंगत और विवेकवान भाववाद यहाँ पर अविवेकवान यान्त्रिक भौतिकवाद के मुकाबले मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के कहीं नज़दीक पड़ता है। लेनिन लिखते हैं:
“विवेकवान भाववाद (हमेशा) मूर्ख (भोंड़े) भौतिकवाद की तुलना में विवेकवान भौतिकवाद के ज़्यादा करीब होता है” (वही, पृ. 274, अनुवाद हमारा)
कैसे? लेनिन दिखलाते हैं कि हेगेल की सर्वाधिक भाववादी रचना वास्तव में सबसे कम भाववादी सिद्ध होती है क्योंकि हेगेल का सुसंगत द्वन्द्ववाद ही उन्हें भाववाद के सीमान्तों पर पहुँचा देता है। तर्कशास्त्र का विज्ञान के आखिरी अध्याय और एनसाइक्लोपीडिया के आखिरी पैराग्राफ़ों में हेगेल देखते हैं कि तर्कशास्त्र वास्तव में उसी भौतिक जगत में मातहतीकृत (subsume) हो जाता है, जिसकी यह व्याख्या करता है और ‘तार्किक’ वास्तव में और कुछ नहीं बल्कि भौतिक विश्व और मस्तिष्क, व्यवहार और सिद्धान्त, पदार्थ और विचार के बीच का लिंक या सेतु मात्र है। लेनिन लिखते हैं:
“हेगेल के तर्कशास्त्र का कुल योग, उसका अन्तिम शब्द और सारतत्व है द्वन्द्वात्मक पद्धति—यह बेहद ग़ौर करने वाली बात है। और एक और बात: हेगेल की सर्वाधिक भाववादी रचनाओं में से एक मानी जाने वाली इस रचना में सबसे कम भाववाद है और सबसे ज़्यादा भौतिकवाद। ‘अन्तरविरोधी’, लेकिन सत्य!” (वही, पृ. 233, अनुवाद हमारा)
यही वजह है कि लेनिन इस बात पर काफ़ी बल देते हैं कि अगर मार्क्स की पूँजी को और विशेष रूप से उसके पहले अध्याय को समझना है जहाँ मार्क्स पूँजीवादी समाज की मूलभूत कोशिका, यानी माल का विश्लेषण करते हैं, जिसमें पूँजीवादी व्यवस्था के सारे अन्तरविरोध अन्तर्निहित होते हैं, तो हेगेल के तर्कशास्त्र को समझना अनिवार्य है। यही अस्तित्व (माल) और उसके रूप (कीमत) और अन्तर्वस्तु (मूल्य) के रिश्तों को समझा सकता है, केवल यही उपयोग मूल्य और मूल्य के अन्तरविरोध को समझा सकता है और केवल यही दिखला सकता है कि यही अन्तरविरोध अपने आपको पूँजीवाद के सभी अन्तरविराधों में अभिव्यक्त करता है, चाहे वह उत्पादन के सामाजिक चरित्र और विनियोग के निजी चरित्र के बीच का अन्तरविरोध हो, उत्पादन और उपभोग के बीच का अन्तरविरोध हो या फिर अराजकता और व्यवस्था के बीच का अन्तरविरोध हो।
लेनिन हेगेल के अपने अध्ययन के दौरान ही प्राचीन द्वन्द्ववाद का भी अध्ययन करते हैं जिनमें हेराक्लिटस और अरस्तू प्रमुख थे। इसके अलावा, वह आधुनिक युग में द्वन्द्ववाद का अध्ययन करने की प्रक्रिया में लाइब्निज़ का भी अध्ययन करते हैं। वे दिखलाते हैं कि प्राचीन द्वन्द्ववाद की ताक़त उसकी व्यापकता, प्रवाह और बुनियादी सवालों को उत्कृष्ट रूप में सूत्रबद्ध करने की क्षमता में निहित है। हेराक्लिटस के द्वन्द्ववादी दर्शन (जो कि प्राचीन द्वन्द्ववाद का शिखर था) का सबसे बड़ा योगदान था भौतिक विश्व को एक प्रक्रिया के रूप में देखना जो लगातार ‘अनादि से अनन्त तक जलने वाली एक अग्नि’ है जिसमें चीज़ें अस्तित्व में आती हैं और अस्तित्व से चली जाती हैं और यह प्रक्रिया अचानक लगने वाली छलाँगों के ज़रिये घटित होती है। दूसरी ओर, लाइब्निज़ का प्रमुख योगदान था पदार्थ और गति की अविभाज्यता को दिखाना जो कि न्यूटोनीय भौतिकशास्त्र में निहित यान्त्रिकता का खण्डन था। उसके बाद अन्त में वे द्वन्द्ववादी पद्धति के विकास के मार्क्स-पूर्व शीर्ष यानी हेगेल पर वापस लौटते हैं ताकि एक उन्नत स्तर पर उनका समकालीन संश्लेषण कर सकें। अपने इस अध्ययन की शुरुआत के बाद वे अपने नतीजों को द्वन्द्ववाद के प्रश्न पर नामक लेख में उजागर करते हैं। इससे पहले के दो नोट्स-लेख द्वन्द्ववाद के तत्व और हेगेल के द्वन्द्ववाद (तर्कशास्त्र) की योजना लेनिन की जाँच-पड़ताल की प्रक्रिया को उजागर करते हैं और द्वन्द्ववाद के प्रश्न पर लेख उनके नतीजों को उजागर करता है। ज़ाहिर है, दोनों में अन्तर होता है, जैसा कि मार्क्स ने बताया था: जाँच-पड़ताल की पद्धति और नतीजों को पेश करने की पद्धति (method of research और method of exposition) अलग होती हैं।
पहला नतीजा, जिसके पाँच हिस्सों का हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं, वह है प्रकृति, समाज और विचार और उसके विषय में संज्ञान व सही विचारों के विकास की प्रक्रिया की मूलभूत एकता और इस मूलभूत एकता को स्थापित करने में सामाजिक व्यवहार की केन्द्रीय भूमिका। यह खोज तर्कशास्त्र, अस्तित्व-मीमांसा और ज्ञान-मीमांसा के बीच मौजूद यान्त्रिक दीवारों को गिरा देता है और इस रूप में तर्कशास्त्र, विज्ञान और अधिभूतवाद के बीच अन्तर और अन्तर्सम्बन्धों की काण्टीय अज्ञेयवादी और प्रत्यक्षवादी व्यवस्था का ध्वंस करता है। लेनिन की यह परियोजना 1908-09 से ही जारी थी और 1909 के बाद भी लेनिन ने लगातार प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में हो रही खोजों के बारे में अपनी जानकारी को ताज़ा रखा था और अपने बुनियादी नतीजों को लगातार पुष्ट किया था; दार्शनिक नोटबुक्स में यह प्रक्रिया हेगेल के अध्ययन और हेगेल के भौतिकवादी उत्क्रमण के साथ एक नयी मंज़िल में प्रवेश करती है।
लेनिन की दूसरी खोज दूसरे इण्टरनेशनल व यूरोपीय सामाजिक-जनवाद के “पुरोहितों” और “पण्डितों” यानी काउत्स्की, प्लेखानोव, वेण्डरवेल्डे आदि जैसे लोगों के अर्थवाद, क्रमिकतावाद, उद्विकासवाद और नतीजतन पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के साथ उनके समझौते पर चोट थी। यह खोज थी अन्तरविरोध के नियम, या विपरीत तत्वों की एकता और संघर्ष के नियम को भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के बुनियादी नियम के तौर पर पहचानना। यही विकास का सार्वभौमिक नियम है। प्रकृति, समाज और विचार तीनों ही जगत में हर विकास इसी नियम के ज़रिये होता है। विकास का स्रोत वस्तुओं/प्रक्रियाओं में अन्तर्भूत (immanent) होता है। हर वस्तु विपरीत तत्वों से ही संघटित (constitute) होती है, यानी विपरीत तत्वों की एकता, और ये तत्व सतत् संघर्षरत रहते हैं, यानी विपरीत तत्वों का संघर्ष, जो इस वस्तु/प्रक्रिया के विकास और अन्तत: उसकी समाप्ति और अन्तरविरोधों की एक नयी व्यवस्था के उदय के साथ किसी नयी वस्तु/प्रक्रिया के उदय का कारण होता है। एकता का अर्थ यह नहीं होता कि कभी-कभी विपरीत तत्व संघर्षरत नहीं होते हैं, एकजुट होते हैं! इसका अर्थ यह होता है हर वस्तु या प्रक्रिया संघटित ही विपरीत तत्वों से होती है जो सतत् संघर्षरत रहते हैं। और इन विपरीत तत्वों के संघर्ष का ही परिणाम हम परिमाणात्मक विकास के ज़रिये गुणात्मक छलाँगों के रूप में देखते हैं। इसी का परिणाम हम एक निर्धारित निषेध (determinate negation) के ज़रिये नये के उदय में देखते हैं, जिसमें परिवर्तन और निरन्तरता दोनों के तत्व होते हैं। इसलिए विकास लगातार उद्विकास और क्रमिकता से नहीं होता, बल्कि उसमें छलाँगों और विच्छेद के दौर आते हैं।
लेनिन के ये ही दार्शनिक नतीजे थे जिन्होंने क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट सिद्धान्त को नयी राजनीतिक और ऐतिहासिक परिस्थिति में पुनर्नवीकृत किया, उनका नवोन्मेष किया और उनकी पुन:स्थापना की। उनके ये ही दार्शनिक नतीजे थे जिनके आधार पर लेनिन ने दूसरे इण्टरनेशनल के अर्थवाद और संशोधनवाद, उसके सामाजिक कट्टरतावाद और राष्ट्रवाद और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के समक्ष उसके आत्मसमर्पण की सुसंगत और विस्तृत व्याख्या की। लेनिन के ये ही नतीजे थे जिनके आधार पर उन्होंने साम्राज्यवाद का अपना सिद्धान्त विकसित किया और मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र और साम्राज्यवाद के युग में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को विकसित किया। लेनिन के यही नतीजे थे जो आगे चलकर अपने आपको सुदूर से पत्र और अप्रैल थीसिस में राजनीतिक रूप से अभिव्यक्त करते हैं और रूसी कम्युनिस्ट आन्दोलन, यहाँ तक कि बोल्शेविक दायरों के भी,तर आरज़ी बुर्जुआ सरकार को लेकर क्रमिकतावादी और उद्विकासवादी नतीजों का खण्डन करते हुए यह बताते हैं कि : एक क्रान्तिकारी छलाँग का वक़्त आ चुका है और अगर रूसी कम्युनिस्ट इतिहास द्वारा सौंपे गये इस “दुस्साहसवादी” कार्यभार को अंजाम देने में चूकते हैं, तो इतिहास के रंगमंच से उन्हें उठाकर बाहर फेंक दिया जायेगा और लम्बे समय तक वे नेपथ्य में रहने को ही अभिशप्त होंगे।
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लेनिन के दार्शनिक जीवन में उपरोक्त दो नोडल बिन्दुओं के आधार पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विकास में उनके युगान्तरकारी अवदान को हम समझ सकते हैं। माओ ने अन्तरविरोध के सिद्धान्त को इसी लेनिनवादी ज़मीन पर खड़े होकर नयी ऊँचाइयों और नयी गहराइयों तक विकसित किया।
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लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के ज़रिये नये चरण में पूँजीवाद की सुसंगत आलोचना का विकास
लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त दो पहलुओं में उनसे ठीक पहले मार्क्सवादियों द्वारा पेश किये गये साम्राज्यवाद के सिद्धान्तों से भिन्न था। पहला, उसका मक़सद केवल 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में आये बदलावों की व्याख्या करना नहीं था बल्कि पूँजीवाद के इस नये चरण, यानी एकाधिकारी पूँजीवाद या साम्राज्यवाद के चरण में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को स्पष्ट करना था, दूसरे इण्टरनेशनल के पतन की सटीक वर्गीय व्याख्या करना था और इसके ज़रिये क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट राजनीतिक परियोजना का पुनर्नवीकरण करना था। ग्यॉर्गी लूकाच ने 1924 में एकदम सटीक बात कही थी:
“लेनिन की श्रेष्ठता—और यह एक बेमिसाल सैद्धान्तिक उपलब्धि थी—इस बात में निहित थी कि उन्होंने साम्राज्यवाद के आर्थिक सिद्धान्त का ठोस तन्तुबद्धीकरण वर्तमान युग की हरेक राजनीतिक समस्या के साथ किया, जिसने इस नये दौर के अर्थशास्त्र को परिणामत: उपस्थित होने वाले निर्णायक सन्धि-बिन्दु पर सभी ठोस कार्रवाइयों के लिए एक दिशा-निर्देश बना दिया।” (ग्यॉर्गी लूकाच. 2009. लेनिन: ए स्टडी इन दि यूनिटी ऑफ़ हिज़ थॉट, वर्सो, पृ. 40, अनुवाद हमारा)
दूसरी विशेषता जो लेनिन के सिद्धान्त को साम्राज्यवाद के अन्य तत्कालीन सिद्धान्तों से अलग करती है, वह यह कि पूर्ण रूप से मूल शोध न होने के बावजूद (क्योंकि लेनिन हॉब्सन, हिल्फर्डिंग और बुखारिन के साम्राज्यवाद के विश्लेषण से बहुत-सी श्रेणियाँ लेते हैं, मसलन, वित्त पूँजी, एकाधिकारी पूँजी, पूँजी का निर्यात, इत्यादि) वह मार्क्सवादी दृष्टि से कहीं अधिक सटीक और अमूर्तन और वैज्ञानिक सामान्यीकरण के कहीं ज़्यादा उन्नत स्तर का सिद्धान्त है।
लेनिन की पुस्तिका नाम था साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की चरम अवस्था जिसका उपशीर्षक था एक सरल रूपरेखा। लेकिन इस विनम्र उपशीर्षक से पाठक गुमराह हो सकता है। इस छोटी-सी पुस्तिका के पीछे एक विराट शोधकार्य था। लेनिन की साम्राज्यवाद-सम्बन्धी नोटबुक्स उनकी संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-39 में मौजूद हैं। यह 900 पेजों की पुस्तक है। ये 150 किताबों और 240 लेखों के अध्ययन के आधार पर लिये गये नोट्स हैं। लेनिन को ज़्यूरिख़ के पुस्तकालय में जो कुछ भी इस विषय पर मिला उन्होंने पढ़ डाला। दूसरी बात, लेनिन के साम्राज्यवाद के पूरे सिद्धान्त को केवल इस छोटी-सी पुस्तिका से नहीं समझा जा सकता है, जिसे ज़ारशाही की सेंसरशिप के कारण काफ़ी इसोपियन भाषा में, यानी घुमा-फिराकर इस्तेमाल की गयी भाषा में लिखा गया था। लेनिन बाद में इस पुस्तिका को पढ़ते हुए ख़ुद ही लिखते हैं:
“आज़ादी के इन दिनों में पुस्तिका के उन वाक्यों को फिर पढ़ना बड़ा कष्टदायी है, जो सेंसर के कारण विकृत हो गये हैं, घुट गये हैं, मानो लोहे के शिकंजे में कुचल दिये गये हों।” (लेनिन. 2008. साम्राज्यवाद, पूँजीवाद की चरम अवस्था, राहुल फ़ाउण्डेशन, अंग्रेज़ी संस्करण, लखनऊ, पृ. 7, अनुवाद हमारा)
यही कारण है कि इस पुस्तिका को कई लोगों ने ग़लत समझा, उसके सिद्धान्तों की दुर्व्याख्या की और लेनिन को “दुरुस्त” करने की कोशिश भी की।
तीसरी बात यह कि लेनिन की इस पुस्तिका के अलावा उनकी रचनाओं ए कैरीकेचर ऑफ़ मार्क्सिज़्म एण्ड इम्पीरियलिस्ट इकोनॉमिज़्म, इम्पीरियलिज़्म एण्ड सोशलिज़्म इन इटली, साम्राज्यवाद और समाजवाद में फूट, दि नेसेण्ट ट्रेण्ड ऑफ़ इम्पीरियलिस्ट इकोनॉमिज़्म और नोटबुक्स ऑन इम्पीरियलिज़्म (संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 39) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। केवल और केवल तभी साम्राज्यवाद पर लेनिन के समूचे चिन्तन को सामग्रिक रूप में समझा जा सकता है।
इसके अलावा, लेनिन अपनी पुस्तिका साम्राज्यवाद की भूमिका में ही यह चेतावनी दे देते हैं कि इसका मक़सद केवल साम्राज्यवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना है, लेकिन साम्राज्यवाद के राजनीतिक, सांस्कृतिक और विचारधारात्मक पहलुओं का अध्ययन भी ज़रूरी है और इसी आर्थिक आधार को समझकर उसे किया जा सकता है। विशेष तौर पर, इस पुस्तिका के लेनिन द्वारा 1920 में लिखित फ्रांसीसी और जर्मन संस्करणों की प्रस्तावनाओं को पढ़ना बहुत ज़रूरी है।
लेनिन अपने अध्ययन में विशेष तौर पर लिबरल जे. ए. हॉब्सन की रचना इम्पीरियलिज्म और ऑस्ट्रियन सामाजिक-जनवादी हिल्फर्डिंग की रचना फाइनांस कैपीटल से कई श्रेणियाँ लेते हैं। इजारेदारियों का बनना, बैंक पूँजी और इजारेदार औद्योगिक पूँजी के विलय से वित्त पूँजी का बनना, पूँजी का निर्यात वे बुनियादी श्रेणियाँ थीं, जिन्हें लेनिन इन रचनाओं से लेते हैं। लेकिन लेनिन की रचना की विशिष्टता इन लेखकों से मिलती-जुलती या समान श्रेणियों का प्रयोग नहीं था, बल्कि इन श्रेणियों का मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक ट्रीटमेण्ट था।
लेनिन जो पहला महत्वपूर्ण बिन्दु रखते हैं वह यह है: साम्राज्यवाद के चरण में हम जो चारित्रिक अभिलाक्षणिकताएँ देख रहे हैं वे उन्हीं प्रवृत्तियों का गुणात्मक रूप से नये चरण में विकास है, जिन्हे मार्क्स ने पूँजी में चिह्नित किया था: पूँजी का सान्द्रण और केन्द्रीकरण (हालाँकि लेनिन केन्द्रीकरण शब्द का प्रयोग कभी-कभार ही करते हैं, लेकिन उनके लिए सान्द्रण में दोनों ही प्रक्रियाएँ शामिल हैं); पूँजी का लगातार जारी संचय, उत्पादन का बढ़ता समाजीकरण और निजी विनियोजन से उसका तीव्र होता अन्तरविरोध और सर्वहारा वर्ग का सापेक्षिक और कई बार निरपेक्ष रूप से प्रकट होने वाला दरिद्रीकरण। पूँजी के सान्द्रण और केन्द्रीकरण को इजारेदारियों के उदय के पीछे मौजूद पूँजीवाद की बुनियादी प्रवृत्तियों के रूप में चिह्नित करते हुए लेनिन लिखते हैं:
“इससे यह देखा जा सकता है कि सान्द्रण ही अपने विकास के एक निश्चित स्तर पर सीधे इजारेदारी की तरफ़ जाता है, क्योंकि कई विशालकाय उद्यम आसानी से एक समझौते तक पहुँच सकते हैं, और दूसरी ओर, प्रतिस्पर्द्धा में बाधा, एकाधिकारीकरण की प्रवृत्ति, स्वयं इन उद्यमों के विशाल आकार से पैदा होती है।” (वही, पृ. 17, अनुवाद हमारा)
आगे लेनिन लिखते हैं:
“लगभग आधी सदी पहले, जब मार्क्स पूँजी लिख रहे थे, तो मुक्त प्रतिस्पर्द्धा अधिकांश अर्थशास्त्रियों को एक “नैसर्गिक नियम” प्रतीत हो रही थी। आधिकारिक विज्ञान ने…मार्क्स की रचनाओं की हत्या करने की कोशिश की, जो पूँजीवाद के सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सिद्ध कर चुके थे कि यह मुक्त प्रतिस्पर्द्धा ही उत्पादन के सान्द्रण को जन्म देती है, जो, विकास के एक निश्चित स्तर पर इजारेदारी की ओर जाता है। आज, इजारेदारी एक तथ्य बन चुकी है। अर्थशास्त्री किताबों का पहाड़ लगा रहे हैं जिसमें वे इजारेदारी की विभिन्न अभिव्यक्तियों का वर्णन कर रहे हैं, और आज भी कोरस में घोषणा कर रहे हैं कि “मार्क्सवाद का खण्डन हो गया”। लेकिन तथ्य ज़िद्दी चीज़ होते हैं…तथ्य दिखलाते हैं कि…इजारेदारियों का उदय, उत्पादन के सान्द्रण का परिणाम है, पूँजीवाद के विकास के मौजूदा चरण का सामान्य और बुनियादी नियम है।” (वही, पृ. 17, अनुवाद हमारा)
हम दिखायेंगे कि कई अकादमीशियनों ने लेनिन के इजारेदारी के सिद्धान्त की इस रूप में दुर्व्याख्या की है कि इजारेदार पूँजीवाद के चरण में प्रतिस्पर्द्धा समाप्त हो जाती है। वास्तव में, लेनिन ने इसके ठीक विपरीत बात कही है।
लेनिन ने कभी भी इजारेदारी को प्रतिस्पर्द्धा की समाप्ति के रूप में नहीं पेश किया। न ही “मुक्त प्रतिस्पर्द्धा” के बारे में लेनिन का कोई रूमानी विचार था कि इस दौर में स्वतन्त्र और न्यायपूर्ण प्रतियोगिता होती थी, जिसमें सभी पूँजियाँ आपस में नैतिकता और आचार का पालन करते हुए प्रतिस्पर्द्धा करती थीं। पूँजीवाद का इतिहास शुरू से ही पूँजीपतियों द्वारा आपसी गलाकाटू, अनैतिक, लूट-मार से भरी प्रतिस्पर्द्धा में एक-दूसरे के गोदाम को जला देने, भ्रष्टाचार से एक-दूसरे को पीछे छोड़ने के प्रयासों के उदाहरणों से भरा हुआ है। लेनिन इस बात को अच्छी तरह से जानते थे। वे जानते थे परफेक्ट प्रतिस्पर्द्धा का भोंड़ा बुर्जुआ आर्थिक विचार एक कल्पना की उड़ान मात्र है। पूँजीवाद में कोई परफेक्ट या इम्परफेक्ट प्रतिस्पर्द्धा नहीं होती, बल्कि वास्तविक प्रतिस्पर्द्धा (real competition) होती है। तो फिर इजारेदारी के चरण का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है पूँजी के सान्द्रण और संकेन्द्रण के साथ पूँजी केन्द्रों (magnates of capital) की संख्या घट जाती है। इजारेदारियाँ जन्म लेती हैं और उनके बीच में प्रतिस्पर्द्धा और भी ज़्यादा हिंस्र और तीव्र रूप में जारी रहती है। छोटी पूँजियों की भीड़ के पीछे जो सच्चाई छिप जाती थी, वह अब नहीं छिप पाती: कि पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा कभी मुक्त, न्यायसंगत और कर्तव्यपरायण ढंग से नहीं होती थी। लेनिन लिखते हैं:
“इसी समय, मुक्त प्रतिस्पर्द्धा से निकली हुई इजारेदारियाँ, प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त नहीं करती हैं, बल्कि वे इसके ऊपर और इसके साथ मौजूद होती हैं, और इस प्रकार बहुत प्रखर, प्रचण्ड शत्रुताओं, टकरावों और संघर्षों को जन्म देती हैं।” (वही, पृ. 83, अनुवाद हमारा)
लेनिन बताते हैं कि इजारेदारी कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती है। यह चीज़ लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धान्त को साम्राज्यवाद के अन्य सभी बुर्जुआ, सामाजिक-जनवादी व “मार्क्सवादी” सिद्धान्तों से अलग करता है। रुडोल्फ़ हिल्फ़र्डिंग का मानना था कि सैद्धान्तिक तौर पर यह सम्भव है कि दुनिया के पैमाने पर इजारेदारी की प्रक्रिया पूर्णता तक पहुँच जाए और कोई एक इजारेदारी समूचे उत्पादन को नियन्त्रित करे। बुखारिन ने अपनी पुस्तक साम्राज्यवाद और विश्व अर्थव्यवस्था में इसकी आलोचना करते हुए लिखा था कि एक देश के पैमाने पर कोई एक पूँजी पूर्ण इजारेदारी तक पहुँच सकती है, जहाँ वह राज्य के साथ संलयित होकर एक राजकीय इजारेदार पूँजीवाद को जन्म दे सकती है, लेकिन देश के पैमाने पर समाप्त होने वाली प्रतिस्पर्द्धा दुनिया के पैमाने पर कई राजकीय इजारेदार पूँजीवादों के बीच हिंस्र प्रतिस्पर्द्धा को जन्म देगी और दुनिया के पैमाने पर यह बनी रहेगी। दोनों का ही यह मानना था कि जिस पर भी पैमाने पर इजारेदारी पूर्णता तक पहुँचेगी उस पैमाने पर प्रतिस्पर्द्धा और पूँजीवादी उत्पादन की अराजकता समाप्त हो जायेगी। हिल्फर्डिंग की यह सोच वास्तव में उन्हीं समन्वयवादी भ्रमों (harmonist illusions) तक ले जाती थी, जो तुगान-बरानोव्स्की ने अपनी रचना से पैदा किये थे। तुगान-बरानोव्स्की ने यह कल्पना की थी कि पूँजीवाद के दायरे के भीतर ही उत्पादन की अराजकता समाप्त हो सकती है और वह सामंजस्यपूर्ण तरीके से अस्तित्वमान बना रह सकता है।
बहरहाल, लेनिन ने जब बुखारिन की पुस्तक की भूमिका लिखी थी, तो वे बुखारिन की बात पर सहमत प्रतीत होते हैं। लेकिन जब लेनिन की पुस्तक प्रकाशित होती है, तो लेनिन उसमें स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि इजारेदारी कभी पूर्णता तक नहीं पहुँच सकती, न तो किसी एक देश के पैमाने पर और न ही दुनिया के पैमाने पर। इसका प्रमुख कारण है असमान विकास का नियम जिसके कारण पूँजीपतियों के बीच होने वाले समझौते जो इजारेदारियों को जन्म देते हैं, वे टूटते-बनते रहते हैं। दूसरा, उत्पादन के नये क्षेत्रों के खुलने के साथ नयी इजारेदारियाँ भी उभरती हैं या पहले से मौजूद एकाधिकृत क्षेत्रों में भी छोटी या मँझोली पूँजी नहीं लेकिन दूसरी इजारेदार पूँजियाँ प्रवेश करती रहती हैं। साथ ही, मौजूद इजारेदारियों के बीच भी प्रतिस्पर्द्धा होती रहती है और एकाधिकृत व ग़ैर-एकाधिकृत क्षेत्रों के बीच भी प्रतिस्पर्द्धा होती रहती है। यही वजह है कि एकाधिकारीकरण कभी पूर्णता की अवस्था पर नहीं पहुँच सकता है, न तो एक देश के पैमाने पर और न ही दुनिया के पैमाने पर। इसीलिए इजारेदारियों का बनना प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त नहीं करता है, बल्कि वह बहुत-सी छोटी पूँजियों के बीच होने वाली रूमानीकृत “मुक्त प्रतिस्पर्द्धा” को समाप्त करता है, जहाँ बहुत-सी छोटी पूँजियों की भीड़ में इस तथ्य को छिपा दिया जाता है कि इस दौर में भी प्रतिस्पर्द्धा कभी प्यार से, नैतिकता के साथ, न्याय के साथ होने वाली कोई स्वतन्त्र प्रतिस्पर्द्धा नहीं थी। इजारेदारियों का बनना प्रतिस्पर्द्धा को और भी ज़्याखा तीखा और हिंस्र बना देता है। इजारेदारियों का बनना उत्पादन की अराजकता को भी समाप्त नहीं करता है, जैसा कि हिल्फर्डिंग और बुखारिन को अलग-अलग प्रकार से लगता था। यह केवल उत्पादन के अभूतपूर्व समाजीकरण के ज़रिये उत्पादन की अराजकता को समाप्त करने की ज़मीन, उसकी एक पूर्वशर्त तैयार करता है। इन प्रश्नों पर अक्सर ही लेनिन को ग़लत उद्धृत किया जाता है और उनकी दुर्व्याख्या की जाती है।
लेनिन बताते हैं कि इजारेदारियों के बनने के साथ बैंक पूँजी और औद्योगिक पूँजी का विलय उत्पादन के उत्तरोत्तर विकास की एक शर्त बन जाता है। क्यों? इसलिए क्योंकि औद्योगिक इजारेदारियों के पैदा होने के साथ पूँजी का सान्द्रण और केन्द्रीकरण और उत्पादन का समाजीकरण एक ऐसे स्तर पर पहुँच जाता है कि अब किसी भी नये निवेश के लिए या पुराने निवेश में ख़र्च हो चुकी अचल पूँजी की भरपाई के लिए जिस आकार की पूँजी की आवश्यकता होती है, वह केवल बैंकों के पास ही होती है। बैंक स्वयं पूँजी संचय की एक निश्चित मंज़िल में प्रमुखता की भूमिका में आते हैं। बैंक, मार्क्स के शब्दों में, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की सतह पर बिखरी हुई मुद्रा पूँजी और आम लोगों की बचतों को सान्द्रित करते हैं। वे खाताधारकों को ब्याज देने को बाध्य होते हैं। यह तभी सम्भव हो सकता है, जबकि वे ऋण लेने वालों से उससे ज़्यादा ब्याज वसूलें। यही बैंकिंग का बुनियादी उसूल है। लेकिन यह अन्तर तभी सम्भव हो सकता है, जब इस बेशी मुद्रा पूँजी को उत्पादक पूँजी में तब्दील कर उजरती श्रम के शोषण के ज़रिये बेशी मूल्य पैदा किया जाय। उद्यमियों द्वारा दिये जाने वाला ब्याज इसी बेशी मूल्य का एक हिस्सा होता है। इजारेदारी के युग में बैंक, जो पहले भुगतान के मध्यस्थों की भूमिका में हुआ करते थे, वे अब उत्पादन में हस्तक्षेप करने और आगे उत्पादन को नियंत्रित करने की स्थिति में आने लगते हैं। साथ ही, वे अपने मुनाफ़े को सुनिश्चित करने के लिए औद्योगिक पूँजीपतियों के बीच समझौते भी करवा कार्टेल, सिण्डिकेट, ज्वाइण्ट स्टॉक कम्पनियाँ बनवाने में मदद करते हैं। औद्योगिक इजारेदार पूँजीपति बैंकों के निदेशक मण्डलों में शामिल होते हैं और बैंक उद्योगों के निवेश को काफ़ी हद तक नियन्त्रित करते हैं। बैंक पूँजी और औद्योगिक पूँजी के विलय के साथ वित्त पूँजी का उदय होता है।
जिस प्रकार उद्योग में एकाधिकारीकरण की प्रक्रिया जारी होती है, ठीक उसी प्रकार और उसी समय स्वयं बैंकों के क्षेत्र में भी एकाधिकारीकरण की प्रक्रिया जारी रहती है। ये दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे को गति प्रदान करती हैं। केन्द्रीय राजकीय बैंकों के उदय के साथ यह प्रक्रिया और तेज़ी से आगे बढ़ती है। वित्तीय पूँजी का एक अल्पतन्त्र (financial oligopoly) पैदा होता है, जो पूरी अर्थव्यवस्था को काफ़ी हद तक विनियमित करने लगता है। बैंक राष्ट्रीय उत्पादन की एकाउण्टिंग की व्यवस्था के रूप में उभरते हैं जिनके पास यह क्षमता होती है कि वे उत्पादन से अराजकता को समाप्त कर सकें, सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार सामाजिक श्रम का विभिन्न उत्पादन की शाखाओं में आबण्टन कर सामाजिक श्रम विभाजन को योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दे सकें। लेकिन यह केवल एक सम्भावनासम्पन्नता होती है क्योंकि उत्पादन के अभूतपूर्व समाजीकरण के बावजूद विनियोजन अभी भी निजी होता है। यह सम्भावनासम्पन्नता समाजवादी क्रान्ति के बाद ही हक़ीक़त में तब्दील हो सकती है।
इस रूप में उत्पादन का समाजीकरण एक ऐसी मंज़िल में पहुँच जाता है जहाँ पूँजीवाद के दायरे के भीतर निजी सम्पत्ति का निषेध हो जाता है। अधिकांश पूँजीपति जो निवेश करते हैं, वह उनकी अपनी निजी पूँजी नहीं होती है बल्कि अन्य पूँजीपतियों की संचित मुद्रा पूँजी और समाज के अन्य वर्गों की बचत के रूप में मौजूद संचित मुद्रा होती है, जिन्हें बैंक पूँजी में तब्दील कर देते हैं। उत्पादन का समाजीकरण एक ऐसी मंज़िल पर पहुँच जाता है, जहाँ यदि निजी विनियोजन को हटा दिया जाय, तो उत्पादन को समाजवादी रूप देना आसान हो चुका होता है। बैंकों के रूप में समूचे उत्पादन के राष्ट्रीय एकाउण्टिंग की एक व्यवस्था पैदा हो चुकी होती है। इस रूप में इजारेदार पूँजीवाद या साम्राज्यवाद एक संक्रमणशील चरण है, समाजवाद के पहले का दौर है, सर्वहारा क्रान्ति की पूर्ववेला है। लेनिन के इस वाक्य को भी बेहद ग़लत तरीक़े से दुर्व्याख्यायित किया गया है, मानो लेनिन साम्राज्यवाद के दौर में तत्काल सर्वहारा क्रान्ति की आसन्नता के बारे में बात कर रहे हों। आगे हम दिखायेंगे कि लेनिन की यह अवधारणा एक कालक्रमिक (chronological) अवधारणा नहीं है, बल्कि एक तार्किक (logical) अवधारणा है।
मार्क्स व एंगेल्स के विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए लेनिन दिखलाते हैं कि साम्राज्यवाद के युग में पूँजी का मालिकाना और प्रबन्धन अलग हो जाते हैं और इसलिए पूँजीपतियों का वर्ग पहले से कहीं ज़्यादा परजीवी और सामाजिक रूप से फ़ालतू (superfluous) हो जाता है। वह कूपन काटने वालों के वर्ग में तब्दील हो जाता है और ब्याज व लगान वसूलने पर ज़िन्दा रहता है। यह साम्राज्यवाद के युग में पूँजीवाद के परजीवी और सड़ते हुए चरित्र की ही एक अभिव्यक्ति होती है। इसी की एक अन्य अभिव्यक्ति होती है इजारेदारियों द्वारा उत्पादक शक्तियों के विकास को बाधित करना। लेनिन का यह अर्थ नहीं था कि इजारेदार पूँजीवाद के दौर में उत्पादक शक्तियों का विकास पूरी तरह से ठहरावग्रस्त हो जाता है। इस दौर में भी प्रतिस्पर्द्धा के कारण समय-समय पर उत्पादक शक्तियों के तीव्र विकास के दौर भी आ सकते हैं। लेनिन लिखते हैं:
“जैसे-जैसे इजारेदार कीमतें, अस्थायी रूप में भी, स्थिर हो जाती हैं, वैसे ही तकनीकी और नतीजतन समस्त प्रगति को मिलने वाला प्रेरण ग़ायब हो जाता है, और उस हद तक इरादतन तकनीकी प्रगति को धीमा करने की आर्थिक सम्भावना भी पैदा होती है…निश्चित तौर पर तकनीकी सुधारों को लाकर उत्पादन की लागत को कम करने और मुनाफ़े को बढ़ाना परिवर्तन की दिशा में एक प्रभाव पैदा करता है। फिर भी, ठहराव और क्षरण की प्रवृत्ति, जो कि इजारेदारी का गुण होता है, जारी रहती है, और उद्योग की कुछ निश्चित शाखाओं में, कुछ निश्चित देशों में, कुछ निश्चित समय के लिए, प्रभावी बन जाती है।” (वही, पृ. 94, अनुवाद और ज़ोर हमारा)
लेकिन उसके कुछ ही आगे लेनिन यह भी लिखते हैं:
“यह मानना एक भूल होगी कि क्षरण की इस प्रवृत्ति का यह अर्थ होता है कि पूँजीवाद के द्रुत वृद्धि की कोई सम्भावना ही नहीं रह जाती।” (वही, पृ. 112, अनुवाद हमारा)
लेनिन के ऊपर कई मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने यह आरोप लगाया कि वे साम्राज्यवाद के दौर में आर्थिक संकटों की व्याख्या के लिए मार्क्स के बुनियादी नियम यानी मुनाफ़े की औसत दर के गिरने की प्रवृत्ति (law of tendential fall in the average rate of profit) को नहीं बल्कि उत्पादन की अराजकता, यानी उत्पादन के दोनों प्रमुख विभागों के बीच समानुपातिकता के न होने (disproportionality) की व्याख्या पेश करते हैं। ऐसा कई जगहों पर लग सकता है। लेकिन लेनिन वहाँ संकट के ठीक एक लक्षण की ही बात कर रहे हैं, न कि आधारभूत कारण की, क्योंकि वे उन लोगों का जवाब दे रहे थे जो साम्राज्यवाद के दौर में ऐसी समानुपातिकता के स्थापित हो जाने की सम्भावना की बातें कर रहे थे।
आधारभूत कारण लेनिन के लिए भी उत्पादन के सामाजिक चरित्र और निजी विनियोग के बीच का अन्तरविरोध है जो अपने आपको मुनाफ़े की औसत दर के गिरने की प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्त करता है। साथ ही, लेनिन बताते हैं कि साम्राज्यवाद के दौर की एक बुनियादी प्रवृत्ति, यानी माल पूँजी के निर्यात की तुलना में मुद्रा पूँजी के निर्यात की प्रवृत्ति के प्रमुख बनते जाने, का प्रमुख कारण है पूँजी का आधिक्य जिसे राष्ट्रीय सीमाओं के अन्दर मुनाफ़े की स्वस्थ दरों पर निवेशित नहीं किया जा सकता है। मार्क्स ने स्पष्ट बताया था कि पूँजी का हर आधिक्य वास्तव में वह आधिक्य होता है, जिसे मुनाफ़े की औसत दर पर निवेशित नहीं किया जा सकता है। यहीं पर लेनिन पूँजी के आधिक्य के संकट के समाधान के अल्पउपभोगवादी व सुधारवादी सुझावों की आलोचना करते हैं जो कहते हैं कि घरेलू माँग को बढ़ाकर अगर इस समस्या का समाधान किया जाय तो साम्राज्यवाद की “राजनीतिक नीति” की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि पूँजीवाद पूँजीवाद बने रहते हुए यह समाधान कर ही नहीं सकता है क्योंकि यह औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है और मुनाफ़े की औसत दर को गिराता है। इसलिए साम्राज्यवाद कोई “नीति” मात्र नहीं है, बल्कि यह पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक आर्थिक गति से पैदा होने वाला एक नया चरण है। वह बताते हैं कि पूँजी का यह आधिक्य उन देशों में लाभप्रद निवेश के अवसर पाता है जो पिछड़े हुए हैं और जहाँ पूँजी का आवयविक संघटन निम्न स्तर पर है, ज़मीन की कीमतें नीचे हैं, कच्चे माल और श्रमशक्ति सस्ती है।
लेनिन ने पूँजी के निर्यात को वित्तीय पूँजी के पैदा होने, इजारेदारियों के बनने और वित्तीय अल्पतंत्र के पैदा होने के साथ साम्राज्यवाद के दौर की सबसे प्रमुख चारित्रिक अभिलाक्षणिकता के रूप में चिह्नित किया। यह चारित्रिक अभिलाक्षणिकता आज कहीं ज़्यादा तीव्रता के साथ देखी जा सकती है। यह सच है कि पूँजी का आवागमन स्वयं उन्नत साम्राज्यवादी देशों के बीच सबसे ज़्यादा है और लेनिन के दौर में भी यह बात सच थी। कई अकादमीशियनों ने इस तथ्य का इस्तेमाल साम्राज्यवाद के चरण में पूँजी के निर्यात को एक प्रमुख विशेषता के रूप में खारिज करने के लिए किया है। लेकिन ऐसे अकादमीशियन मूलभूत तर्क को नहीं समझ पाते। यह सच है कि आज भी अमेरिका में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा स्रोत यूरोपीय संघ है और अमेरिका द्वारा किये जाने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा भी यूरोपीय संघ में जाता है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि विकसित पूँजीवादी देशों के बीच पूँजी का आयात और निर्यात साम्राज्यवादी शोषण कोई तत्व नहीं है। दूसरी बात, हमें वैश्विक पैमाने पर पूँजी के आयात और निर्यात में विकासशील पूँजीवादी देशों का हिस्सा और विकसित देशों का हिस्सा देखना होगा। तीसरा, निरपेक्ष रूप से किन्हीं भी दो देशों की तुलना निरर्थक है क्योंकि इस तरह का सापेक्षतावादी विश्लेषण किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचेगा। क्योंकि ऐसे विश्लेषण में हमेशा एक देश दूसरे देश की तुलना में साम्राज्यवादी देश के रूप में प्रकट होगा। मसलन, अगर अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच पूँजी के आयात व निर्यात की तुलना करें, तो जो देश पूँजी का शुद्ध निर्यातक होगा, वह दूसरे देश या देशों के आर्थिक संघ की तुलना में साम्राज्यवादी बन जायेगा और जो शुद्ध आयातक होगा वह साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित देश या देशों का आर्थिक संघ बन जायेगा! आज अमेरिका पूँजी का शुद्ध आयातक है। तो क्या इससे नतीजा निकाला जा सकता है कि अमेरिका यूरोपीय साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित है?
ऐसे में पूँजी के निर्यात को साम्राज्यवाद के दौर की विशिष्टता के रूप में समझने के लिए वास्तविक मानदण्ड यह है कि पूँजी निर्यात के द्वारा आज पिछड़े पूँजीवादी देशों से अधिशेष विनियोजन में उसकी भूमिका और विकसित साम्राज्यवादी देशों के प्रभुत्व को बरक़रार रखने में इसकी भूमिका को समझा जाय। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उन्नत साम्राज्यवादी देशों के बीच पूँजी का आवागमन वैश्विक पैमाने पर कुल पूँजी आयात व निर्यात का बड़ा हिस्सा है। इन उन्नत साम्राज्यवादी देशों की तुलना में तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में पूँजी निर्यात और उनके साम्राज्यवादी आर्थिक शोषण के ज़रिये अधिशेष विनियोजन वह कुंजीभूत कड़ी है जिसे समझना ज़रूरी है और वही उन्नत देशों के बीच होने वाले पूँजी आयात और निर्यात को भी निर्धारित करता है और उनके बीच की प्रतिस्पर्द्धा का कारण भी बनता है।
जब हम उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों और वाणिज्यिक उपनिवेशों में पूँजी के निर्यात के असर को देखते हैं तो प्रथम-दृष्टया लेनिन के कुछ प्रेक्षण सटीक नहीं जान पड़ते। मिसाल के तौर पर, लेनिन का कहना था कि पूँजी का निर्यात उन्नत साम्राज्यवादी देशों में पूँजीवादी विकास की गति को कम करेगा, जबकि इन औपनिवेशिक या अर्द्धऔपनिवेशिक देशों में पूँजीवादी विकास को त्वरण देगा। जब तक इन देशों में राजनीतिक स्वतन्त्रता नहीं आयी थी, तब तक इस बात को पुष्ट नहीं किया जा सकता। इन देशों में साम्राज्यवाद द्वारा सीमित पूँजीवादी विकास अवश्य हुआ, उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास की कुछ पूर्वशर्तें भी तैयार हुईं, जैसा कि मार्क्स ने बताया था। लेकिन वहाँ साम्राज्यवाद की भूमिका पूँजीवादी विकास को बाधित करने और उसे निर्भर बनाये रखने की ज़्यादा रही। लेकिन राजनीतिक स्वतन्त्रता के बाद के दौर में, लेनिन का यह प्रेक्षण अधिक सही जान पड़ता है। इस दौर में, साम्राज्यवादी देशों से तमाम उद्योग तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के सापेक्षिक रूप से कम विकसित देशों में स्थानान्तरित हुए हैं और भारत, दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील, मिस्र, तुर्की, इण्डोनेशिया जैसे तमाम देशों में पूँजीवादी विकास तेज़ी से आगे बढ़ा है, हालाँकि कहीं ज़्यादा असमानता और रुग्ण व बीमार किस्म के पूँजीवादी जनवाद के साथ या कई बार पूँजीवादी जनवाद की अनुपस्थिति में।
लेनिन बताते हैं कि पूँजी के निर्यात के द्वारा इजारेदारियों की दुनिया के अधिक से अधिक हिस्से पर अपने प्रभाव को जमाने की प्रतिस्पर्द्धा का परिणाम होता है दुनिया का पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच लाक्षणिक या औपचारिक (figurative) विभाजन और दुनिया का पूँजीवादी इजारेदार संघों के बीच वास्तविक (actual) विभाजन। यह वास्तविक विभाजन ही लाक्षणिक विभाजन का आधार होता है। पूँजीवादी इजारेदार संघों के बीच के समझौते बनते-टूटते रहते हैं क्योंकि पूँजीवाद का एक मूल नियम होता है असमान विकास। समझौते होने और उनके टूटने के साथ टकराहटों का दौर पैदा होता है। यह सुनिश्चित करता है कि पूर्ण एकाधिकारीकरण कभी भी नहीं हो सकता, जैसा कि काउत्स्की जैसे सामाजिक-जनवादियों को लगता था। जब भी समझौतों की पुरानी व्यवस्था टूटती है (और वह नियमित अन्तरालों पर टूटती ही है) तो साम्राज्यवादी टकराहटें फूट पड़ती हैं। आज भी दुनिया ऐसी टकराहट के दौर से गुज़र रही है, जब पुराने आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं और नतीजतन दुनिया के साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रभाव-क्षेत्रों में बँटवारे के पुराने समीकरण संकट का शिकार है। यह साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा को लगातार तीव्र कर रहा है। वास्तविक विभाजन की स्थितियाँ गुणात्मक रूप से बदल रही हैं और नतीजतन लाक्षणिक विभाजन को बदलने की जद्दोजहद साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच हर बीतते दिन के साथ तीखी होती जा रही है।
यहाँ एक महत्वपूर्ण बात समझना ज़रूरी है। पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच दुनिया के क्षेत्रीय विभाजन (territorial division) के विषय में लेनिन बेहद दिलचस्प प्रेक्षण रखते हैं, जो आज की दुनिया का विश्लेषण करने के लिए बहुत उपयोगी हैं। वे साम्राज्यवादी शक्तियों की तीन श्रेणियों की बात करते हैं: पहला, उभरती हुई साम्राज्यवादी शक्तियाँ (लेनिन के दौर में अमेरिका, जर्मनी और जापान), दूसरा, पुरानी और गौण बन रही साम्राज्यवादी शक्तियाँ (लेनिन के समय में फ्रांस और ब्रिटेन) और तीसरा, रूस जैसे देश जो अभी अन्य साम्राज्यवादी देशों की तुलना में पिछड़े हुए थे और जहाँ वित्तीय पूँजी और औद्योगिक पूँजीवाद के उन्नततम रूप पिछड़े हुए सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों के साथ सहअस्तित्व में थे। आज इन तीनों श्रेणियों में कौन-से देश आयेंगे, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन इस पर आम सहमति होगी कि मोटे तौर पर ये तीन श्रेणियाँ अब भी प्रासंगिक हैं।
दूसरी बात, जो लेनिन अपनी पुस्तिका ‘साम्राज्यवाद’ में कहते हैं और जिस पर कई असावधान पाठकों और अध्येताओं का ध्यान नहीं जाता है वह यह है कि औपनिवेशिक व्यवस्था (यानी, उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों और नवउपनिवेशों की वैश्विक व्यवस्था) का मुख्यत: और मूलत: बने रहना साम्राज्यवाद के अस्तित्व की कोई अनिवार्य पूर्वशर्त नहीं है। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि साम्राज्यवादी पूँजी पूर्ण राजनीतिक स्वतन्त्रता वाले देशों को भी अपने मातहत कर सकती है और करती भी है। उपनिवेश व अर्द्धउपनिवेश के अलावा वित्त पूँजी के वर्चस्व और निर्भरता के और भी बहुविध रूप हो सकते हैं। इनमें से एक ‘वाणिज्यिक उपनिवेश’ है, जिसकी लेनिन चर्चा करते हैं। ऐसे वाणिज्यिक उपनिवेश राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होते हैं। लेनिन ऐसे देश के तौर पर तत्कालीन अर्जेण्टीना का उदाहरण देते हैं।
इसके बाद लेनिन वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के एक अन्य रूप की भी चर्चा करते हैं, जो आज की दुनिया में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। वह कहते हैं कि छोटे और/या अपेक्षाकृत कम विकसित राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र पूँजीवादी देशों का भी साम्राज्यवादी आर्थिक शोषण होता है। लेनिन अपने दौर से ऐसे जिस देश का उदाहरण देते हैं वह है पुर्तगाल। यह राजनीतिक रूप से पूर्णत: स्वतन्त्र देश था और यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ एक कनिष्ठ साझीदार के तौर पर जुड़ा हुआ था। पुर्तगाल ब्रिटेन को अपने उपनिवेशों में निवेश की अनुमति देता था, अपने बन्दरगाहों के सामरिक इस्तेमाल की अनुमति देता था, और अपने टेलीग्राफ़ केबलों का भी इस्तेमाल करने देता था। बदले में वह ब्रिटेन से सामरिक सुरक्षा की गारण्टी लेता था और अन्य आर्थिक फ़ायदे लेता था। लेनिन लिखते हैं:
“एक अलग प्रकार की वित्तीय और कूटनीतिक निर्भरता, जो कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के साथ मौजूद होती है, की मिसाल पुर्तगाल के रूप में मिलती है। पुर्तगाल एक स्वतन्त्र सम्प्रभु राज्य है, लेकिन असल में यह दो सौ वर्षों से ज़्यादा समय से…एक ब्रिटिश प्रोटेक्टोरेट रहा है। ग्रेट ब्रिटेन ने पुर्तगाल और उसके उपनिवेशों को अपने प्रतिद्वन्द्वियों, यानी स्पेन व फ्रांस, से अपने संघर्ष में अपनी अवस्थितियों को मज़बूत करने के लिए संरक्षण प्रदान किया है। बदले में, ग्रेट ब्रिटेन ने वाणिज्यिक विशेषाधिकार, मालों का और विशेष तौर पर पूँजी का पुर्तगाल और पुर्तगाली उपनिवेशों में आयात करने के लिए फ़ायदेमन्द स्थितियाँ, पुर्तगाल के बन्दरगाहों और द्वीपों, उसके टेलीग्राफ़ केबलों आदि का इस्तेमाल करने का अधिकार प्राप्त किया है। बड़े और छोटे राज्यों के बीच इस प्रकार के सम्बन्ध हमेशा से ही रहे हैं, लेकिन पूँजीवादी साम्राज्यवाद के युग में वे एक सामान्य व्यवस्था बन गये हैं, वे “दुनिया को विभाजित करने” के सम्बन्धों के कुल योग का एक अंग बन गये हैं और वैश्विक वित्त पूँजी के प्रकार्यों की श्रृंखला की कड़ियाँ बन गये हैं।” (वही, पृ. 81-82, अनुवाद और ज़ोर हमारा)
आज की दुनिया में स्थिति कुछ बदली है। आज ऐसे सापेक्षिक रूप से कम उन्नत और राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र पूँजीवादी देशों की एक पूरी श्रेणी है, जो कि किसी एक साम्राज्यवादी देश से नत्थी नहीं हैं। वे आम तौर पर साम्राज्यवाद के ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका में हैं। वे कभी इस तो कभी उस साम्राज्यवादी धुरी की ओर झुकते हैं और अपने आर्थिक हितों के अनुसार उनसे मोलभाव करते हैं। वे राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हैं और साम्राज्यवादी देशों के अर्द्धउपनिवेश नहीं हैं या किसी एक साम्राज्यवादी देश के उपनिवेश या नवउपनिवेश नहीं हैं।
आज दुनिया के पैमाने पर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो राष्ट्रीय व औपनिवेशिक प्रश्न मूलत: और मुख्यत: हल हो चुका है। भारत, तुर्की, मिस्र, इण्डोनेशिया, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, बंगलादेश, आदि कोई अर्द्धउपनिवेश या नवउपनिवेश नहीं हैं। वे राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र सापेक्षिक रूप से कम उन्नत उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देश हैं जो अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को क़ायम रखते हैं और अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर अलग-अलग साम्राज्यवादी धुरियों से मोलभाव करते हैं और आम तौर पर साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर की भूमिका निभाते हैं। इन देशों की शासक बुर्जुआज़ी न तो साम्राज्यवादी बुर्जुआज़ी है (क्योंकि ये साम्राज्यवादी देश नहीं हैं), न दलाल बुर्जुआज़ी है (क्योंकि ये मूलत: और मुख्यत: वाणिज्यिक-नौकरशाह बुर्जुआज़ी नहीं है, बल्कि औद्योगिक-वित्तीय बुर्जुआज़ी है) और न ही यह राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी है (क्योंकि राष्ट्रीय प्रश्न हल हो चुका है और इसका जनता के साथ कुछ भी साझा नहीं है; साम्राज्यवाद के साथ इसके दोस्ताना अन्तरविरोध हैं; अपने देश के पैमाने पर साम्राज्यवाद के साथ मिलकर किये जाने वाले अधिशेष विनियोजन में यह ‘सीनियर पार्टनर’ है और दुनिया के पैमाने पर अधिशेष विनियोजन में यह आम तौर पर साम्राज्यवाद का ‘जूनियर पार्टनर’ है और उसमें अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास करता है और अपने जैसे देशों की बुर्जुआज़ी के साथ गोलबन्द होता रहता है)। इस बात को समझने के कुछ तार हमें लेनिन के ही लेखन में मिल सकते हैं, जहाँ वह स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि ऐसे देशों का अस्तित्व सम्भव है, जो राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हों, लेकिन जहाँ की व्यापक मेहनतक़श जनता अपने देश के पूँजीपति वर्ग के हाथों शोषण के अलावा साम्राज्यवादी पूँजी के द्वारा आर्थिक शोषण का भी शिकार है और अक्सर ये दोनों मिलकर उसे लूटते हैं।
लेनिन के दौर में ऐसे देशों की मौजूदगी प्रमुख प्रवृत्ति नहीं थी। इसलिए लेनिन ने अपनी पुस्तक में उपनिवेशों व अर्द्धउपनिवेशों की राष्ट्रीय मुक्ति के प्रश्न पर ज़्यादा ज़ोर दिया है। ज़ाहिर है, वह उस दौर का सबसे जीवन्त प्रश्न था और हर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सबसे पहले जीवन्त प्रश्न पर सोचता है, प्रधान अन्तरविरोध और उसके प्रधान पहलू पर सोचता है। लेकिन यह स्पष्ट है कि लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त औपनिवेशिक व्यवस्था की पूर्वशर्त के मौजूद होने पर निर्भर नहीं था।
इसी प्रकार लेनिन साम्राज्यवाद के लिए दुनिया के औद्योगिक केन्द्र और कृषि-प्रधान परिधि में बँटे होने के काउत्स्की के सिद्धान्त को भी ख़ारिज करते हैं। लेनिन बताते हैं कि साम्राज्यवादी शोषण और प्रभुत्व का अपने आप में दुनिया के औद्योगिक और कृषि-प्रधान क्षेत्रों में बँटवारे से कोई लेना-देना नहीं है। साम्राज्यवादी देश दुनिया के औद्योगीकृत क्षेत्रों में भी अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए उतनी ही तीव्रता के साथ प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। दुनिया पहले ही साम्राज्यवादी शक्तियों में बँटी हुई है और उसके पुनर्विभाजन के लिए होने वाले संघर्ष में हर प्रकार के क्षेत्रों के लिए प्रतिस्पर्द्धा शामिल होती है। जब साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच एक-दूसरे को कमज़ोर करने और पूरे विश्व पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने की लड़ाई होती है, तो औद्योगिक और कृषि क्षेत्रों के बीच विभाजन करने की बहुत गुंजाइश नहीं बचती है। आज भी प्रभात पटनायक व उत्सा पटनायक जैसे लोग काउत्स्की के सिद्धान्त को भौगोलिक नियतत्ववाद (geographical determinism) के साथ गड्ड-मड्ड करके अलग-अलग रूप में पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। मसलन, प्रभात व उत्सा पटनायक साम्राज्यवाद का आधार उष्णकटिबंधीय (tropical) देशों और समशीतोष्ण (temperate) देशों में दुनिया के बँटवारे को मानते हैं।
उनके हास्यास्पद सिद्धान्त के आधार पर पहली श्रेणी के देशों में विशेष तौर पर कच्चे मालों की कीमतों (ऐसे कच्चे माल जो इन देशों में ही साल भर पैदा हो सकते हैं और साधारण माल उत्पादकों द्वारा पैदा किये जाते हैं!) को और टुटपुँजिया साधारण माल उत्पादकों की आमदनी को नीचे रखना दूसरी श्रेणी के देशों (यानी साम्राज्यवादी समशीतोष्ण देशों) के लिए ज़रूरी होता है। इसलिए साम्राज्यवाद का कारण पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक आर्थिक गति, पूँजी संचय, पूँजी का सान्द्रण व संकेन्द्रण, उन्नत पूँजीवादी देशों में मुनाफ़े की औसत दर का गिरना या ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं है, जिसकी मार्क्स ने चर्चा की थी बल्कि एक “राजनीतिक नीति” है, जिसके ज़रिये उष्णकटिबन्धीय देशों को समशीतोष्ण देश ढाँचागत अधीनस्थता में रखते हैं, ताकि उनके साथ इन विशेष मालों का असमान विनिमय कर सकें और वहाँ के साधारण माल उत्पादकों की आमदनी को कम रख सकें! यह ऐसा बेतुका और बेहूदा सिद्धान्त है, जिसे किसी भी प्रकार के तर्कों और तथ्यों के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। यही प्रभात पटनायक हैं जिन्होंने पहले भी काउत्स्की के ‘अतिसाम्राज्यवाद’ की थीसिस को पुनर्जीवित किया और साम्राज्यवाद के अपने इस नये मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त में भी काउत्स्कीवादी थीसिस को दुहराते हैं।
आज की दुनिया इस थीसिस के सिरे से ग़लत होने का एक बार फिर से प्रमाण पेश कर रही है, जैसा कि लेनिन के समय में भी हुआ था। लेनिन बताते हैं कि आम तौर पर “अतिसाम्राज्यवाद” की किसी मंज़िल का आना सम्भव नहीं है और न ही इसके ज़रिये पूँजीवाद स्वत: या संसदीय रास्ते से समाजवाद में तब्दील हो सकता है। वजह साफ़ है: असमान विकास का नियम। यह नियम सुनिश्चित करता है कि इजारेदार संघों के बीच के सारे समझौते अस्थायी होते हैं, इजारेदार संघों का अस्तित्व ही अस्थायी होता है, पूँजी का सान्द्रण और केन्द्रीकरण होने के साथ उसकी विपरीत गति, यानी पूँजियों का विभाजन भी जारी रहता है, नये उत्पादन के क्षेत्र और नयी पूँजियों का उद्भव भी होता रहता है, इसलिए काउत्स्की के सपनों का पूर्ण एकाधिकारीकरण और विदेश नीति के कार्टेलाइज़ेशन के ज़रिये किसी वैश्विक इजारेदारी का पैदा होना असम्भव है। अतिसाम्राज्यवाद का यह सिद्धान्त लेनिन के शब्दों में ‘अतिमूर्खता’ का सिद्धान्त था, एक “शुद्ध अमूर्तन” था जबकि ठोस यथार्थ में पूँजीवादी व्यवस्था कभी भी इस दिशा में विकसित नहीं हो सकती है। हर दौर में कोई एक वर्चस्वकारी साम्राज्यवादी देश या साम्राज्यवादी देशों की धुरी अवश्य होती है, लेकिन इसका अर्थ कोई एकध्रुवीय विश्व नहीं होता जिसमें प्रतिस्पर्द्धा समाप्त हो चुकी होती है। ऐसी एकध्रुवीयता का दृष्टिभ्रम (optical illusion) किसी एक साम्राज्यवादी देश या धुरी के वर्चस्व के लम्बे दौरों के दौरान पैदा होती रही है। सोवियत यूनियन के पतन के बाद एजाज़ अहमद और प्रभात पटनायक जैसे सामाजिक-जनवादी चिन्तकों को भी ऐसा भ्रम हुआ था जो ‘पैक्स अमेरिकाना’ की बातें कर रहे थे। 1990 के दशक के अन्त और नयी सहस्राब्दि के पहले दशक के संकट के साथ यह भ्रम टूट गया था, हालाँकि सामाजिक-जनवादी अपने राजनीतिक चरित्र और सैद्धान्तिक पूर्वाग्रहों के कारण अभी भी इस मूर्खतापूर्ण विचार से चिपके हुए हैं।
यहाँ हम लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धान्त के एक अन्य पहलू की दुर्व्याख्या की आलोचना रखना ज़रूरी समझते हैं। जब लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की चरम अवस्था और ‘सर्वहारा क्रान्ति की पूर्ववेला’ कहा तो इसका कई लोगों ने यह मतलब निकाला कि यह सर्वहारा क्रान्तियों की आसन्नता का सिद्धान्त है। इसके आधार पर ही बाद में कई लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि लेनिन का सिद्धान्त ग़लत था क्योंकि सर्वहारा क्रान्तियाँ आसन्न नहीं सिद्ध हुईं और दुनिया आज भी पूँजीवाद-साम्राज्यवाद की गिरफ्त में है। साथ ही, कई लोगों ने यह सवाल भी पूछा कि साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की चरम अवस्था क्यों माना जाय? कुछ लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की कि लेनिन ने वास्तव में ‘नवीनतम अवस्था’ की बात की थी, चरम अवस्था की नहीं। ऐसी सारी आपत्तियों के पीछे लेनिन के सिद्धान्त को समझ पाने की अक्षमता छिपी हुई है।
पहली बात, ‘चरम अवस्था’ कोई कालिक या कालक्रमिक (chronological) अवधारणा नहीं है, बल्कि एक तार्किक (logical) अवधारणा है। इसका यह अर्थ भी नहीं है तत्काल सर्वहारा क्रान्तियाँ और समाजवादी व्यवस्था का आगमन आसन्न है। इसका अर्थ यह है कि साम्राज्यवाद के साथ उत्पादन का समाजीकरण एक ऐसी नयी मंज़िल में पहुँच जाता है, जहाँ उसका निजी विनियोजन के साथ अन्तरविरोध एक ‘ब्रेकिंग पॉइण्ट’ पर पहुँच जाता है। यह समाजीकरण आर्थिक तौर पर समाजवादी व्यवस्था की पूर्वशर्त को पूरा करता है और उसकी ज़मीन तैयार करता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि इसके बाद समाजवादी व्यवस्था में कोई स्वत:स्फूर्त संक्रमण हो जायेगा या समाजवादी क्रान्ति आसन्न है; समाजवादी क्रान्ति हर सूरत में एक सचेतन राजनीतिक कार्य ही होगी और वह सफलतापूर्वक हो सके यह इस पर निर्भर करता है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद, अर्थवाद, अराजकतावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, गैर-पार्टी क्रान्तिवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष चलाने में कम्युनिस्ट कामयाब होते हैं या नहीं। लेनिन का अर्थ यह था कि साम्राज्यवाद के बाद पूँजीवाद की कोई नयी अवस्था, यानी अन्तरविरोधों की कोई गुणात्मक रूप से नयी व्यवस्था, अस्तित्व में नहीं आयेगी। इस रूप में यह सर्वहारा क्रान्तियों की पूर्ववेला है। लेकिन साम्राज्यवाद, यानी मरणासन्न, सड़ता हुआ पूँजीवाद, सर्वहारा शक्तियों के संचित न हो सकने और आन्दोलन में सही विचारधारात्मक व राजनीतिक लाइन तथा कार्यक्रम और इससे लैस एक बोल्शेविक नेतृत्व के स्थापित न हो सकने की सूरत में लम्बे समय तक इसी सड़न की अवस्था में जीवित रह सकता है। देखिये लेनिन क्या लिखते हैं:
“…तब यह साफ़ हो जाता है कि हमारे सामने उत्पादन का समाजीकरण है, महज़ “अन्तर्गुंथन” नहीं; कि निजी आर्थिक और निजी सम्पत्ति सम्बन्ध एक ऐसा खोल हैं जो अब इसकी अन्तर्वस्तु के साथ फिट नहीं होता, एक ऐसा खोल जो अवश्यम्भावी रूप में क्षरित होगा अगर उसे हटा दिये जाने के काम को कृत्रिम रूप से टाला जाता है, एक ऐसा खोल जो अच्छे-ख़ासे लम्बे समय तक के लिए इस क्षरण की अवस्था में बना रह सकता है (अगर, सर्वाधिक बुरी स्थिति हुई और अवसरवादी फोड़े का इलाज लम्बा खिंचता है), लेकिन जो अवश्यम्भावी तौर पर नष्ट कर दिया जायेगा।” (वही, पृ. 120, अनुवाद और ज़ोर हमारा)
लेनिन साम्राज्यवाद के अपने उपरोक्त आर्थिक विश्लेषण के आधार पर निश्चित राजनीतिक नतीजे निकालते हैं। ये नतीजे इस प्रकार हैं:
पहला, साम्राज्यवाद के दौर में तमाम औपनिवेशिक, अर्द्धऔपनिवेशिक देशों में और साथ ही अन्य प्राक्-पूँजीवादी देशों में जनवादी क्रान्ति को सुसंगत रूप से अंजाम देने का काम इन देशों का बुर्जुआ वर्ग नहीं कर सकता है, जो साम्राज्यवादी सन्दर्भ में ही पैदा हुआ और पला-बढ़ा है और ठीक इसीलिए उन क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्नताओं से मूलत: और मुख्यत: रिक्त है, जिनसे आधुनिक युग के शुरुआत में फ्रांसीसी बुर्जुआज़ी लैस थी; आज जनवादी क्रान्ति को भी रैडिकल तरीके से अंजाम देने के काम को सर्वहारा वर्ग को अपने नेतृत्व में समूची किसान आबादी को साथ लेकर करना होगा; इसी को हम ‘जनता की जनवादी क्रान्ति’ का सिद्धान्त कहते हैं जो चार वर्गों के मोर्चे पर आधारित था: सर्वहारा वर्ग, किसान वर्ग, मध्यवर्ग और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग (धनी व उच्च मध्यम किसान भी इसी का अंग होते हैं);
दूसरा, सर्वहारा वर्ग चार वर्गों के रणनीतिक मोर्चे के आधार पर जनता की जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न करने के बाद बिना रुके समाजवादी क्रान्ति की तैयारी करेगा, जिसमें वह ग़रीब व मँझोली किसान आबादी तथा मध्यवर्ग को साथ लेगा, जबकि पूँजीपति वर्ग (जो अब अपना राष्ट्रीय चरित्र खो चुका है) अब वर्ग मित्र की भूमिका में नहीं रह जायेगा;
तीसरा, राष्ट्रीय प्रश्न का समाधान ऐतिहासिक तौर पर अब विश्व सर्वहारा क्रान्ति की प्रक्रिया का ही अंग बन चुका है; उन्नत देशों में सीधे समाजवादी क्रान्ति का प्रश्न एजेण्डा पर है जबकि औपनिवेशिक व अर्द्धऔपनिवेशिक देशों में पहले जनता की जनवादी क्रान्ति और फिर समाजवादी क्रान्ति के रूप में यह प्रक्रिया दो चरणों में सम्पन्न होगी;
चौथा, दुनिया के औपनिवेशिक और अर्द्धऔपनिवेशिक देश (और आज के सन्दर्भ में तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के उत्तर-औपनिवेशिक सापेक्षिक रूप से पिछड़े हुए और राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र पूँजीवादी देश) साम्राज्यवाद की ‘कमज़ोर कड़ी’ हैं और ये ही सबसे पहले टूटेंगी; इनके टूटे बिना उन्नत पूँजीवादी देशों में समाजवादी क्रान्ति की धारा आम तौर पर विजयी होने की मंज़िल तक नहीं पहुँच सकती; आज भी तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में समाजवादी क्रान्ति की धारा के आगे बढ़े बग़ैर आम तौर पर उन्नत साम्राज्यवादी व उन्नत पूँजीवादी देशों में इस प्रक्रिया का आगे बढ़ना मुश्किल है;
पाँचवा, साम्राज्यवाद के चरण के साथ ही सामाजिक-जनवाद का पतन अपने चरम पर पहुँच जाता है जिसका ऐतिहासिक आधार होता है दुनिया की साम्राज्यवादी लूट के आधार पर साम्राज्यवादी देशों के मज़दूर वर्ग के बीच से एक कुलीन श्रमिक वर्ग का निर्माण, इस कुलीन श्रमिक वर्ग का बुर्जुआकरण और उसके नतीजे के तौर पर अर्थवाद, उद्विकासवाद, क्रमिकतावाद की राजनीतिक प्रवृत्तियों का पैदा होना और सामाजिक-जनवाद का अपने देश के पूँजीपति वर्ग के साथ समझौता; सामाजिक-जनवाद (संशोधनवाद) के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष के बिना सर्वहारा वर्ग अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित नहीं कर सकता है और न ही आम मेहनतकश आबादी को पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति के लिए नेतृत्व दे सकता है;
छठवाँ, राष्ट्रीय प्रश्न पर एक सही राजनीतिक लाइन को अपनाना कम्युनिस्टों के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य है, जिसका मूलभूत तत्व है सर्वहारा क्रान्ति के आम हितों के मातहत अलग होने के अधिकार समेत बिना शर्त राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना; दमित राष्ट्र के कम्युनिस्टों का अन्तरराष्ट्रीयतावादी कर्तव्य है कि वे अपने राष्ट्र के बुर्जुआ राष्ट्रवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए स्वैच्छिक एकीकरण के अधिकार पर बल देते हुए राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध को संगठित करें, जबकि दमनकारी राष्ट्र/देश के कम्युनिस्टों का अन्तरराष्ट्रीयतावादी कर्तव्य है कि वे दमित राष्ट्र के स्वेच्छा से अलग होने के अधिकार का समर्थन करते हुए अपने देश के साम्राज्यवादी और राष्ट्रीय कट्टरपंथी बुर्जुआज़ी के विरुद्ध संघर्ष करें;
सातवाँ, साम्राज्यवाद के युग में बुर्जुआ वर्ग अपनी प्रगतिशीलता की बची-खुची सम्भावनाओं से भी पूर्णत: रिक्त होता जाता है; वह अब जेनुइन रूप में जनवादी या रिपब्लिकन नहीं रह जाता है, बल्कि खुले तौर पर प्रतिक्रियावादी होता जाता है। यह प्रतिक्रिया अपने आपको बहुविध रूपों में अभिव्यक्त करती है, चाहे वह सैन्य तानाशाही हो, बोनापार्तवाद हो, फ़ासीवाद हो या विभिन्न प्रकार के कट्टरपंथ हों।
आज भूमण्डलीकरण के दौर में, यानी साम्राज्यवादी चरण के इस नये दौर में, कौन-से परिवर्तन आये हैं? सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि जो परिवर्तन आये हैं, वे उन्हीं प्रवृत्तियों के आगे विकसित होते जाने का परिणाम हैं, जिनको लेनिन ने साम्राज्यवाद की चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं के रूप में चिह्नित किया था: एकाधिकारी पूँजी का वर्चस्व, वित्तीय पूँजी का उद्भव और एक वित्तीय अल्पतंत्र का प्रभुत्व, पूँजी का निर्यात, विश्व का पूँजीवादी इजारेदारियों के बीच आर्थिक (वास्तविक) विभाजन और साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच क्षेत्रीय (लक्षणात्मक) विभाजन। आज के समय में जिन परिवर्तनों को हम चिह्नित कर सकते हैं वे इस प्रकार हैं: वित्तीय सट्टेबाज़ पूँजी का अभूतपूर्व रूप से बढ़ा बोलबाला, जो साम्राज्यवाद के इस नये दौर में पूँजीवाद की अभूतपूर्व मरणासन्नता और सड़न का लक्षण है; इजारेदार पूँजी के एक नये प्रकार के सांगठनिक रूप यानी राष्ट्रपारीय निगमों का प्रभुत्व स्थापित होना; दुनिया का पहले से गुणात्मक रूप से नये स्तर पर वित्तीय समेकन और पूँजी का गुणात्मक रूप से नये स्तर पर अबाध अन्तरराष्ट्रीय प्रवाह; सूचना व संचार तथा परिवहन के क्षेत्र में तकनोलॉजिकल क्रान्ति के ज़रिये फोर्डवाद के दौर का समापन और उत्तर-फोर्डवादी विखण्डित असेम्बली लाइन का पैदा होना और उसके साथ श्रम का पूरी दुनिया में अनौपचारिकीकरण, कैजुअलीकरण और ठेकाकरण; औपनिवेशिक, अर्द्धऔपनिवेशिक व नवऔपनिवेशिक प्रणाली का मूलत: और मुख्यत: विघटित होना, आपवादिक मामलों को छोड़कर दुनिया के पैमाने पर राष्ट्रीय प्रश्न का मूलत: और मुख्यत: हल होना और इसके साथ राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र, सापेक्षिक रूप से पिछड़े उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देशों की एक व्यापक श्रेणी का 1940 से दशक से 1990 के दशक के बीच में अस्तित्व में आना, जहाँ पर एक ऐसा बुर्जुआ वर्ग शासन में है जो न तो दलाल है, न राष्ट्रीय है और न ही साम्राज्यवादी है, बल्कि आम तौर पर साम्राज्यवाद का जूनियर पार्टनर है, साम्राज्यवाद के साथ दोस्ताना अन्तरविरोध रखता है, उसके साथ मिलकर अपने देश में आम मेहनतकश आबादी का शोषण करता है, अपने देश के पैमाने पर अधिशेष विनियोजन में सीनियर पार्टनर है जबकि दुनिया के पैमाने पर अधिशेष विनियोजन में जूनियर पार्टनर है; यानी, दुनिया का साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच क्षेत्रीय विभाजन अब औपनिवेशिक व्यवस्था का रूप नहीं लेता, बल्कि प्रभाव क्षेत्रों में दुनिया के बँटवारे का रूप लेता है, जो बदलते शक्ति सन्तुलन के साथ बदलता रहता है; साम्राज्यवादी देशों में भी नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में व्यापक स्तर पर ग़रीबी, बेरोज़गारी और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा का पैदा होना और राज्यसत्ता का कल्याणवाद से पीछे हटना और नतीजतन वहाँ भी व्यापक मज़दूर व मेहनतक़श आबादी में नये सिरे से रैडिकलाइज़ेशन का आरम्भ होना; लेनिन के दौर के मुकाबले सामाजिक-जनवाद और नामधारी कम्युनिस्ट (संशोधनवादी) पार्टियों के पतन और साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के साथ उनके गठजोड़ का एक ऐसे स्तर पर पहुँचना जो लेनिन के दौर के किसी भी सामाजिक-जनवादी को शर्मिन्दा कर देता; साम्राज्यवादी विश्व का एक दीर्घकालिक मन्दी का शिकार होना, जो नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की नीतियों के मूल में है, आदि। ये परिवर्तन उन्हीं प्रवृत्तियों के उत्तरोत्तर विकास का परिणाम है, जिन्हें लेनिन ने बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में चिह्नित किया था।
नवउदारवादी भूमण्डलीकरण वास्तव में साम्राज्यवाद के उस दीर्घकालिक संकट का बुर्जुआ वर्ग द्वारा दिया गया प्रतिक्रियावादी प्रतिसाद (reactionary response) है जो 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध में शुरू हुआ था और जिससे वैश्विक पूँजीवाद आज तक पूरी तरह से उबर नहीं पाया। यह मुनाफ़े की गिरती औसत दर का ही परिणाम था। इसके जवाब में पूँजीवादी श्रम बाज़ारों का विविनियमन किया गया, वित्तीय पूँजी को विविध विनियमनों से मुक्त किया गया, मज़दूर वर्ग द्वारा दशकों में जीते गये जनवादी और आर्थिक अधिकारों पर हमला किया गया, आम मेहनतकश जनता के जनवादी व नागरिक अधिकारों पर हमला किया गया, राजकीय कल्याणवाद के दौर का अन्त हुआ और पूँजीवादी राज्य खुलकर पूँजी के पक्ष में हस्तक्षेपकारी बना, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को खुलेआम लागू किया गया। इन्हीं नीतियों को 1970 के दशक में कुल मिलाकर रीगनॉमिक्स और थैचरिज़्म का नाम दिया गया था। इन्हीं नीतियों के आर्थिक सिद्धान्तकार थॉमस फ्रीडमैन जैसे अर्थशास्त्री थे। यह नवउदारवादी भूमण्डलीकरण का दौर साम्राज्यवाद के बुनियादी चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं के ही विकास का परिणाम है; यह कहीं बाहर से किसी “राजनीतिक नीति” के रूप में नहीं शुरू हुआ था। यह साम्राज्यवादी विश्व के आन्तरिक अन्तरविरोधों और संकट का ही परिणाम है।
राज्यसत्ता और पार्टी की अवधारणाओं के बारे में लेनिन के सैद्धान्तिक अवदान
लेनिन का तीसरा सबसे प्रमुख अवदान था राज्यसत्ता की मार्क्सवादी अवधारणा को आगे विकसित करना। मार्क्स की इस शिक्षा को, कि सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग की राज्यसत्ता को ज्यों का त्यों अपने वर्ग हितों के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता, लेनिन ने आगे विकसित किया। राज्य और क्रान्ति में लेनिन ने स्पष्ट किया कि बुर्जुआ चुनावों के ज़रिये बुर्जुआ संसद में बहुमत हासिल करके सरकार बनाकर सर्वहारा वर्ग और उसकी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी समाजवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा नहीं कर सकते। सरकार बुर्जुआ राज्यसत्ता का अस्थायी निकाय है, उसकी औपचारिक कार्यकारिणी है; संसद उसकी विधायिका है; ये सभी अस्थायी हैं। लेकिन राज्यसत्ता के स्थायी निकाय हैं उसकी सेना, पुलिस, सशस्त्र बल, उसकी नौकरशाही। राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अपने प्रभुत्व को कायम रखने और उसके विरुद्ध हिंसा का उपकरण है। बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके ही सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही को ख़त्म कर सकता है और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, जिसका संस्थाबद्ध रूप सर्वहारा राज्य होता है, को स्थापित कर सकता है, जिसका लक्ष्य होता है वर्गों का खात्मा और इसलिए स्वयं अपना भी विलोपन।
लेनिन ने राज्य और क्रान्ति में दिखलाया कि मार्क्स के परिपक्व लेखन में शुरू से ही क्रान्तिकारी रूपान्तरण और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की अवधारणा के तत्व मौजूद थे और संशोधनवादियों, विशेष तौर पर काउत्स्की द्वारा यह साबित करने के प्रयास व्यर्थ थे कि ‘जनवाद के शान्तिपूर्ण विकास’ के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था तक पहुँचा जा सकता है। लेनिन ने बताया कि अराजकतावादियों की कपोलकल्पनाओं के विपरीत राज्यसत्ता का ‘उन्मूलन’ नहीं किया जा सकता है बल्कि केवल एक लम्बी प्रक्रिया में उसका विलोपीकरण (withering away) हो सकता है। इस दौर में शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग द्वारा अपनी राज्यसत्ता द्वारा बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध को कुचलना अनिवार्य होता है। लेनिन बताते हैं कि राज्य के विलोपीकरण की आर्थिक शर्तें क्या हैं; यहाँ लेनिन माकर्स के गोथा कार्यक्रम की आलोचना के विचारों को ही विकसित करते हैं। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि जब तक उत्पादन एक ऐसी मंज़िल में नहीं पहुँच जाता कि ‘सभी से उनकी क्षमता के अनुसार, सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार’ के सिद्धान्त को लागू किया जा सके, तब तक समाजवादी संक्रमण का दौर जारी रहता है और इस दौर में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को क़ायम रखना अनिवार्य होता है। इस दौर में लोगों को अपने द्वारा दी सामाजिक श्रम की मात्रा के अनुसार मज़दूरी मिलती है, जो कि अब श्रमशक्ति की कीमत नहीं होती क्योंकि श्रमशक्ति अब माल नहीं रह जाती है। लेकिन मानसिक श्रम व शारीरिक श्रम का अन्तर मौजूद होता है, माल उत्पादन जारी रहता है, विनिमय सम्बन्ध बने रहते हैं। यह उत्पादन-सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को जारी रखकर और उत्पादक शक्तियों का विकास करके ही सम्भव है कि समाजवादी संक्रमण से कम्युनिस्ट समाज तक पहुँचा जा सके। अन्त में, वे काउत्स्की द्वारा मार्क्सवाद के संशोधनवादी विकृतिकरण की धज्जियाँ उड़ाते हैं और बताते हैं कि सर्वहारा वर्ग संसदीय बहुमत द्वारा राज्य को संचालित करके समाजवाद लाने की उम्मीद नहीं पाल सकता। उसे बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करना होगा जिसका आधार उसके स्थायी निकाय, मसलन, नौकरशाही और सेना, पुलिस आदि हैं।
लेनिन ने सोवियत सत्ता के दो वर्षों के अनुभव के बाद राज्य की अपनी अवधारणा को और विकसित किया। लेनिन ने अपनी इस सोच को बदला कि सर्वहारा क्रान्ति के बाद सर्वहारा राज्यसत्ता में ‘अराज्य’ (no-state) का तत्व बेहद जल्दी विकसित हो जायेगा और समाजवादी संक्रमण की अवधि के बारे में उनके विचारों में परिवर्तन आया। लेनिन ने लिखा था कि सामान्य गणित जानने वाले मज़दूर भी राज्यसत्ता के तमाम कार्यों को निपटा सकेंगे, क्योंकि उनमें अब आर्थिक प्रबन्धन का कार्य ही प्रधान होगा। लेकिन उनके इन विचारों में सोवियत सत्ता के अनुभवों ने परिवर्तन किया। उन्होंने बताया कि न सिर्फ़ रूस जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में, बल्कि उन्नत पूँजीवादी देशों में भी समूचे समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी की भूमिका सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रधान उपकरण की होगी और मज़दूर वर्ग, जो कि क्रान्ति के बाद भी विचारधारा के मामले में घुटनों तक निम्न-बुर्जुआ कीचड़ में खड़ा होता है, तत्काल राजनीतिक शासन व आर्थिक प्रबन्धन के कार्यभारों को स्वत:स्फूर्त रूप से और प्रत्यक्ष तौर पर नहीं सम्भाल सकता है, बल्कि अपनी हिरावल पार्टी के ज़रिये ही इन्हें अंजाम दे सकता है।
पार्टी के प्रधान उपकरण की यह भूमिका उसी अनुपात में कम हो सकती है जिस अनुपात में मज़दूर वर्ग राजनीतिक वर्ग के रूप में अपने आपको संगठित करता है, जिस हद तक बुर्जुआ वर्ग के विचारधारात्मक वर्चस्व को निर्णायक रूप में ध्वस्त किया जाता है, जिस हद तक उत्पादक शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास होता है, जिस हद तक उत्पादन-सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की परियोजना आगे बढ़ती है और जिस हद तक व्यापक जनसमुदायों की पहलक़दमी निर्बन्ध होती है। निश्चित ही, ये आपस में जुड़े हुए कार्यभार हैं जिन्हें पार्टी को एक सही विचारधारात्मक, राजनीतिक व सांगठनिक लाइन के साथ अंजाम देना होता है। इसके अलावा, उत्पादन के साधनों से प्रत्यक्ष उत्पादकों के अलगाव को तत्काल और आनन-फ़ानन में पूर्णत: ख़त्म कर देने की कोई भी परियोजना रूमानी शेख़चिल्लीवाद है, जो अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद की पहचान है। इस रूप में लेनिन ने राज्यसत्ता की मार्क्सवादी अवधारणा को विकसित किया।
लेनिन ने 1901-02 से रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी के भीतर अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद और दूसरी तरफ़ त्रात्स्कीपंथ और बुण्डवाद से संघर्ष की प्रक्रिया में मार्क्सवादी पार्टी सिद्धान्त को विकसित किया। लेनिन ने बताया कि पूँजीवादी समाज में कोई भी वर्ग सजातीय (homogeneous) या एकाश्मी (monolithic) नहीं होता, बल्कि वह उन्नत, मध्यवर्ती और पिछड़े हिस्सों में विभाजित होता है। बुर्जुआ वर्ग प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफे की दरों के औसतीकरण के ज़रिये एक वर्ग के रूप में संघटित होता है और उसका संघटनकारी तर्क (constitutive logic) ही प्रतिस्पर्द्धा होता है। ऐसे में, बुर्जुआ वर्ग को अपने सामान्य दूरगामी राजनीतिक हितों के सामूहिकीकरण के लिए अपनी राज्यसत्ता और अपनी पार्टियों की ज़रूरत होती है। उसी प्रकार, पूँजीवाद द्वारा थोपी गयी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में मज़दूर वर्ग भी पेशे, कुशलता, उद्योग, क्षेत्र आदि के आधार पर विभाजित होता है और उसके सामान्य दूरगामी राजनीतिक हितों को भी संगठित करने के लिए उसे एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता होती है। लेकिन चूँकि उसका संघटनकारी तर्क उत्पादन का समाजीकरण और सामूहिकता होती है, इसलिए उसे कई हिरावल पार्टियों की आवश्यकता नहीं होती है। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी एक ही हो सकती है, कई नहीं। यह बात भी सोवियत सत्ता के लगभग तीन वर्षों के ठोस अनुभव से सिद्ध हुई। यह हिरावल पार्टी सर्वहारा वर्ग के उन्नत तत्वों का दस्ता (advanced detachment) होती है और सर्वहारा वर्ग की विचारधारा का मूर्त रूप (embodiment of proletarian ideology) होती है। यह हरेक हड़ताली मज़दूर को सदस्यता नहीं दे सकती बल्कि केवल उन मज़दूरों को सदस्यता देती है जो सर्वहारा वर्ग की विश्वदृष्टि, पहुँच और पद्धति को अपनाते हैं, उसके विज्ञान को अपनाते हैं और समाजवादी कार्यक्रम को आत्मसात करते हैं और साथ ही संगठन के कठोर व लौह अनुशासन में काम करने को तैयार होते हैं। इसलिए राजनीतिक प्रक्रिया में सर्वहारा वर्ग को हमें दो बार गिनना होता है: एक बार आम मज़दूर जनसमुदायों के अंग के रूप में और दूसरी बार मज़दूर वर्ग के उन्नत राजनीतिक हिरावल के रूप में।
लेनिन ने बताया कि स्वत:स्फूर्त आर्थिक व ट्रेडयूनियन संघर्षों के ज़रिये समाजवादी विचारधारा और चेतना मज़दूर आन्दोलन में पैदा नहीं होती और न ही उसका प्राधिकार बनती है। मज़दूर आन्दोलन में सर्वहारा विचारधारा का प्रवेश ‘बाहर से’ होता है, यानी उन क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों के ज़रिये जिन्होंने सर्वहारा वर्ग का पक्ष चुना है, उनके वर्ग संघर्षों से एकरूप हुए हैं और सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्षों के ऐतिहासिक अनुभवों का समाहार किया है और उसके आधार पर सर्वहारा विचारधारा को नि:सृत किया है। लेनिन यहाँ यह नहीं कह रहे कि कोई मज़दूर यह नहीं कर सकता। वह कहते हैं कि जब कोई मज़दूर भी इस भूमिका को निभाता है तो वह आम मज़दूर जनसमुदायों के हिस्से के तौर पर यह काम नहीं करता, बल्कि एक क्रान्तिकारी विचारक और बुद्धिजीवी के रूप में यह काम करता है। यहाँ लेनिन जनसमुदायों व वर्ग के द्वन्द्व और सामाजिक वर्ग और राजनीतिक वर्ग के द्वन्द्व दोनों की ही ओर इशारा करते हैं। यहाँ उनकी अवस्थिति इस प्रश्न पर ठीक वही नहीं है जो काउत्स्की की थी। यह ग़लतफ़हमी कई लोगों को, ख़ास तौर पर, अराजकतावाद व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विचलन के शिकार लोगों को हो जाती है।
लेनिन पार्टी सिद्धान्त को विकसित करते हुए बताते हैं कि बुर्जुआ राज्यसत्ता को पूँजी के पेशेवर अहलकारों (functionaries) का ढाँचा संचालित करता है। उसका ध्वंस व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय किसी ऐसी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में ही कर सकते हैं जिसका मेरुदण्ड पेशेवर क्रान्तिकारियों का ढाँचा हो। ऐसी हिरावल पार्टी का सांगठनिक उसूल होता है जनवादी केन्द्रीयता। इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ यह होता है कि पार्टी की विचारधारात्मक व राजनीतिक लाइन के निर्धारित होने तक पूर्ण जनवाद और उसके निर्धारित होने के बाद पूर्ण केन्द्रीयता। इस उसूल की ठोस सांगठनिक अभिव्यक्ति यह होती है कि पार्टी कांग्रेस अथवा सम्मेलन पार्टी का सर्वोच्च निकाय होते हैं, दो कांग्रेसों या सम्मेलनों के बीच केन्द्रीय कमेटी सर्वोच्च निकाय होती है, हर कमेटी अपने से ऊपर की कमेटी के मातहत होती है और सभी कमेटियाँ केन्द्रीय कमेटी के मातहत हाती हैं। लेनिन ने बताया कि अल्पसंख्या को पार्टी के भीतर राजनीतिक व विचारधारात्मक बहस चलाने का अधिकार होता है, लेकिन वह भी बहुसंख्या द्वारा निर्धारित राजनीतिक लाइन व कार्यक्रम पर अमल करने को बाध्य होती है। यदि ऐसा न हो तो सर्वहारा वर्ग की पार्टी समस्त वर्ग के हिरावल की भूमिका को नहीं अदा कर सकती है और न ही वह सर्वहारा वर्ग को समस्त मेहनतकश जनसमुदायों को राजनीतिक नेतृत्व देने में सक्षम बना सकती है, जिसमें कि मज़दूर वर्ग के आम जनसमुदाय भी शामिल हैं। वह एक डिबेटिंग क्लब या सोसायटी बन जायेगी।
इसके अलावा, लेनिन ने पार्टी संगठन और जनसंगठनों के बीच के रिश्ते को सटीकता से और ठोस रूप में निरूपित किया। उन्होंने बताया कि जहाँ पार्टी सर्वहारा विचारधारा का मूर्त रूप होती है वहीं जनसंगठन किसी वर्ग अथवा सामाजिक समुदाय की सामान्य और विशिष्ट आर्थिक व राजनीतिक माँगों के आधार पर निर्धारित साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर संगठित होते हैं। पार्टी संगठन विभिन्न जनसंगठनों के भीतर जनवादी उसूल के आधार पर काम करते हैं और इसी प्रक्रिया में पार्टी अपनी राजनीतिक लाइन को सूत्रबद्ध, कार्यान्वित, सत्यापित और परिष्कृत करती है और उसके वर्चस्व को जनसमुदायों के बीच स्थापित करती है। केवल सर्वहारा लाइन के नेतृत्व में ही जनसमुदाय वह शक्ति अर्जित करते हैं, जिसके बूते पर वह इतिहास का निर्माण कर सकते हैं। वहीं सर्वहारा वर्ग सबसे उन्नत व क्रान्तिकारी वर्ग होता है, लेकिन वह अकेले इतिहास नहीं बना सकता। वह जनसमुदायों के बीच बुर्जुआ लाइन के वर्चस्व को तोड़कर और अपनी सर्वहारा लाइन के वर्चस्व को स्थापित करके ही क्रान्ति के कार्यभार को पूरा कर सकता है। यही जनसमुदायों और वर्ग का द्वन्द्व है, जिसे न समझना या तो हिरावलपंथ (त्रात्स्की, लासाल) की ओर ले जाता है या फिर जनदिशा के नाम पर मासिज़्म (अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, मज़दूरवाद, जनतावाद, लोकरंजकतावाद, विविध प्रकार के “वामपंथी” विचलन) की ओर।
लेनिन का यह सांगठनिक सिद्धान्त, यानी बोल्शेविक या लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त, समूचे वर्ग समाज के दौर के लिए वैध है और समाजवादी संक्रमण के दौरान भी इसमें केवल वे ही परिवर्तन आते हैं, जो कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के कारण और पूँजीपति वर्ग के अपदस्थ होने और पूँजीवादी राज्यसत्ता के ध्वंस के कारण आते हैं। इन पर माओ ने प्रकाश डाला था। लेकिन साथ ही माओ ने स्पष्ट किया था कि लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त ही समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में भी लागू होते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग को राजनीतिक रूप से संगठित और राजनीतिक वर्ग के रूप में संघटित करने का उपकरण ही नहीं होती, बल्कि सर्वहारा अधिनायकत्व के दौर में भी सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण होती है।
किसान प्रश्न व कृषि प्रश्न तथा राष्ट्रीय प्रश्न पर लेनिन द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त का विकास
किसान प्रश्न और कृषि प्रश्न पर लेनिन ने मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र को मार्क्स और काउत्स्की के क्रान्तिकारी दौर के चिन्तन के सिरों को पकड़ते हुए विकसित किया। रूस में पूँजीवाद के विकास का अध्ययन करते हुए और नरोदवादियों व आर्थिक रोमांसवादियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए लेनिन ने दिखलाया कि खेती के क्षेत्र में पूँजीवादी विकास कौन-से ठोस रूप लेता है। लेनिन ने मार्क्स के भूमि लगान के सिद्धान्त की रक्षा की और बताया कि पूँजीवादी लगान ही खेती में पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों का सबसे महत्वपूर्ण मापदण्ड है। अगर लगान का चरित्र पूँजीवादी हो चुका है तो खेती का चरित्र मूलत: और मुख्यत: पूँजीवादी हो चुका है। इसके साथ ही और इसी परिवर्तन से पूँजीवादी खेती की अन्य चारित्रिक अभिलाक्षणिकताएँ अनिवार्य रूप से विकसित होती हैं, मसलन, किसान आबादी का विभेदीकरण, बाज़ार के लिए पूँजीवादी माल उत्पादन, एक घरेलू बाज़ार का अस्तित्व में आना, खेतिहर मज़दूरों की आबादी में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी और मज़दूरों का प्रवास। लेनिन ने यह भी दिखलाया कि रूपगत धरातल पर किसी ग्राम समुदाय के बचे रहने का पहलू खेती के पूँजीवादी विकास को निर्णायक रूप में बाधित नहीं करता और ग्राम समुदाय के ढाँचे के भीतर ही पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध विकसित हो सकते हैं और होते हैं।
लेनिन का यह विश्लेषण गाँवों में वर्गों के विश्लेषण, गाँवों में वर्गों की रणनीतिक लामबन्दी और क्रान्तिकारी रणनीति को सूत्रबद्ध करने के लिए आज भी केन्द्रीय महत्व रखता है। इसे ही न समझ पाने के कारण हमारे देश में हाल के दिनों में कम्युनिस्ट ग्रुपों व संगठनों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा कुलकों व धनी किसानों की जनविरोधी माँगों का समर्थन कर रहा था और उनके आन्दोलन के मंच पर कोने में एक छोटी-सी जगह पाने के लिए बदहवास था। यह अनायास नहीं था। यह मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र और कृषि प्रश्न व किसान प्रश्न पर लेनिनवादी लाइन के बारे में अज्ञान या अवसरवादी तरीक़े से उसकी इरादतन नज़रअन्दाज़ी से हो रहा था।
आम तौर पर, खेती और अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन को अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक सामाजिक संरचना का पर्याय मान लिया जाता है। लेनिन के अनुसार, यह उत्पादन-सम्बन्धों के चरित्र को प्रधानता देने के बजाय, उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर के सापेक्षतावादी व अर्थवादी मानक को प्रधानता देना है। खेती में उत्पादक शक्तियों के विकास का कोई विशेष स्तर अपने आप में खेती के पूँजीवादी या सामन्ती चरित्र का द्योतक नहीं होता है। यह वास्तव में खेती में उत्पादन-सम्बन्धों के चरित्र का प्रश्न है, जिसे समझा जाना ज़रूरी होता है, जिसका सारतत्व होता है भूमि लगान का चरित्र। इन सैद्धान्तिक स्पष्टीकरणों के ज़रिये लेनिन ने रूस के सन्दर्भों में नरोदवादियों से बहस चलायी और दिखलाया कि उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र का वैज्ञानिक व मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है और न ही उनका सामाजिक व आर्थिक सच्चाइयों से कोई लेना-देना है। आज भी उस बहस को पढ़ना, विशेष तौर पर हमारे देश भारत में बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इस प्रश्न अधिकांश कम्युनिस्ट संगठन व ग्रुप लेनिनवादी पोज़ीशन पर नहीं खड़े हैं, बल्कि एक नवनरोदवादी पोज़ीशन पर खड़े हैं।
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राष्ट्रीय प्रश्न पर लेनिन ने स्तालिन के साथ मिलकर मार्क्स व एंगेल्स के ही चिन्तन के सिरे को पकड़ा जो भ्रूण रूप में और इस प्रश्न पर बिखरी हुई टिप्पणियों के रूप में ही मौजूद था। लेनिन ने राष्ट्रीय प्रश्न पर स्तालिन के साथ मिलकर मार्क्सवादी उसूलों को स्थापित किया और सही सर्वहारा राजनीतिक लाइन को स्पष्ट किया। लेनिन ने बताया कि कम्युनिस्ट हमेशा ही राष्ट्रों की साझी सहमति से बने अधिकतम सम्भव बड़े साझा राज्य के पक्ष में होते हैं और इसमें भी वे फेडरेशन के बजाय यूनियन के रूप को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि फेडरेशन अलग-अलग राष्ट्रों के सर्वहारा वर्ग और जनता के समेकन के रास्ते में बुर्जुआ दीवारें खड़ी करता है; लेकिन लेनिन किसी भी रूप में राष्ट्रीय दमन का पुरज़ोर विरोध करते हैं और हर राष्ट्र के अलग होने के अधिकार समेत आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हैं।
लेनिन ने बताया कि सर्वहारा क्रान्ति के हितों के मातहत राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन राष्ट्रीय प्रश्न पर सही मार्क्सवादी उसूल है। लेनिन ने यह भी बताया कि राष्ट्रीय दमन किस प्रकार किसी भी दमित बुर्जुआज़ी के दमन की कुंजीभूत कड़ी से संघटित होता है और बाद में वह समूची जनता को अपनी ज़द में ले लेता है। राष्ट्रीय मुक्ति का कार्यभार वर्ग अन्तर्वस्तु से एक बुर्जुआ जनवादी कार्यभार है। लेकिन साम्राज्यवाद के दौर में आम तौर पर बुर्जुआ वर्ग इसे रैडिकल तरीक़े से अपने नेतृत्व में सम्पन्न करने की क्षमता खो चुका है। इस कार्यभार को सुसंगत रूप से पूरा करने के लिए सर्वहारा वर्ग को ही इसे अपने हाथों में लेना होगा। ऐतिहासिक तौर पर कहें, तो आज दुनिया में जहाँ कहीं भी राष्ट्रीय प्रश्न का समाधान तमाम पूँजीवादी देशों के भीतर बाक़ी है, वहाँ इसका भविष्य समाजवादी क्रान्ति के साथ जुड़ गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि किसी दमित राष्ट्र के कम्युनिस्ट दमनकारी राष्ट्र में समाजवादी क्रान्ति के इन्तज़ार में राष्ट्रीय मुक्ति के कार्यभार को स्थगित कर देते हैं। ऐतिहासिक मूल्यांकन और राजनीतिक कार्यक्रम के निर्धारण का प्रश्न निर्धारण के दो अलग स्तरों का प्रश्न है, उसे गड्ड-मड्ड नहीं किया जा सकता है। दमित राष्ट्र में राष्ट्रीय मुक्ति और जनवादी क्रान्ति का प्रश्न ही एजेण्डा पर होता है, क्योंकि क्रान्ति का वर्ग-चरित्र ही वही बनता है।
राष्ट्रीय प्रश्न पर सही सर्वहारा राजनीतिक लाइन निरूपित करते हुए लेनिन ने स्पष्ट किया कि सर्वहारा वर्ग हर प्रकार के राष्ट्रवाद का विरोध करता है। वह सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का हामी है। इसके अनुसार, दमनकारी राष्ट्रों के सर्वहारा वर्ग का यह कर्तव्य है कि वह सभी दमित राष्ट्रों के अलग होने समेत आत्मनिर्णय के अधिकार का यानी “स्वैच्छिक रूप से अलग होने” का समर्थन करे, जबकि दमित राष्ट्रों के सर्वहारा वर्ग का यह कर्तव्य है कि वह “स्वैच्छिक रूप से एकीकृत होने” की लाइन पर बल दे। इसी के ज़रिये हर रूप में बुर्जुआ राष्ट्रवाद का विरोध किया जा सकता है। लेनिन ने कहा कि ये दोनों अवस्थितियाँ अन्तरविरोधी नहीं हैं, बल्कि एक ही राजनीतिक लाइन की संघटक हैं और एक-दूसरे की पूरक हैं। राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध को संगठित करने और उसे नेतृत्व देने का यह अर्थ नहीं होता कि ऐसा करते हुए सर्वहारा वर्ग राष्ट्रवादी अवस्थिति अपना लेता है या बुर्जुआ राष्ट्रवादी शक्तियों के साथ राजनीतिक या विचारधारात्मक समझौते कर लेता है।
दमित राष्ट्रों के अलावा लेनिन व स्तालिन ने दमित राष्ट्रीयताओं यानी राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के लिए भी सर्वहारा लाइन के अनुसार एक सटीक कार्यक्रम पेश किया। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का उपयोग करते हुए अलग राज्य के गठन का विकल्प प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि उनके पास एक सुनिश्चित क्षेत्रीयता (territoriality) नहीं है। मसलन, अगर भारतीय लोग नेपाल में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समुदाय हैं, तो नेपाल में एक और भारत बनाने की माँग नहीं उठा सकते! भारत में रहने वाले नेपाल के लोगों पर भी यही बात लागू होती है। उनके लिए सही कम्युनिस्ट लाइन है उस राज्य से सुसंगत जनवाद की माँग करना जिसके मातहत वे रह रहे हैं और सर्वहारा वर्ग को हमेशा इस संघर्ष का पुरज़ोर तरीके से साथ देना चाहिए। यानी, उन्हें अपनी भाषा में शिक्षा, सरकारी कामकाज, न्यायिक कार्रवाई आदि का अधिकार मिलना चाहिए और उनके लिए अलग स्कूल या कार्यालय नहीं होने चाहिए (जो कि बाकी जनता से उन्हें काट देगा) बल्कि उन्हीं सरकारी स्कूलों व कार्यालयों में उन्हें ये अधिकार प्रदान किये जाने चाहिए, जो समूची जनता के लिए हैं।
स्तालिन के साथ मिलकर लेनिन ने राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी उसूलों को मार्क्स व एंगेल्स के चिन्तन के छूटे हुए सिरे को पकड़ते हुए सुसंगत तौर पर विकसित किया। आज भी ये उसूल पूर्णत: लागू होते हैं और कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर बीच-बीच में आने वाले राष्ट्रवादी भटकावों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष में हमें मार्गदर्शन देते हैं। हमारे देश में भी अभी हाल ही में ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के रूप में ही एक निहायत अपढ़ और मूर्ख किस्म के राष्ट्रवादी भटकाव की शुरुआत हुई है, जिसकी सुसंगत आलोचना हमने पेश की है।
कला और विचारधारा का सम्बन्ध: लेनिन का ‘परावर्तन सिद्धान्त’
कला, साहित्य और आलोचना के क्षेत्र में लेनिन ने बहुत व्यापक और व्यवस्थित रूप में लेखन नहीं किया है। लेकिन 1908 से 1911 के बीच तोलस्तोय पर लिखे उनके छ: लेखों ने मार्क्सवादी कला व साहित्य आलोचना के सिद्धान्त के बुनियादी निर्देशांक स्थापित किये। यहाँ भी लेनिन मार्क्स व एंगेल्स के उपयुक्त उत्तराधिकारी सिद्ध होते हैं। इन लेखों में लेनिन ने अपना प्रसिद्ध ‘परावर्तन सिद्धान्त’ (reflection theory) प्रतिपादित किया।
लेनिन ने दिखलाया कि राजनीतिक अधिरचना भी आर्थिक आधार से सापेक्षिक तौर पर स्वायत्त होती है, लेकिन विचारधारात्मक और विशेष तौर पर कलात्मक अधिरचना के मामले में यह सापेक्षिक स्वायत्तता कहीं ज़्यादा होती है। लेनिन ने दिखलाया कि कोई सच्चा कलाकार अपनी कलात्मक रचनाओं की अन्तर्वस्तु को सचेतन तौर पर अपनी विचारधारा के अनुसार निर्धारित नहीं कर सकता। जब भी वह ऐसा करेगा तो उसी रचना कलात्मक रचना (work of art) कम और प्रचारात्मक रचना (work of propaganda) ज़्यादा होगी। वे, मुख्यत: और मूलत:, राजनीतिक प्रचार की सामग्री बन जाएँगी। बेशक़, उनकी भी आवश्यकता कम्युनिस्ट आन्दोलन को होती है। लेकिन यहाँ लेनिन जेनुइन कला और कलाकार की बात कर रहे हैं, प्रचारक की नहीं।
लेनिन ने बताया कि एक सच्चे कलाकार की वफ़ादारी या निष्ठा सामाजिक यथार्थ के चित्रण में होती है। निश्चित तौर पर, कलाकार स्वयं एक विचारधारात्मक पृष्ठभूमि का उत्पाद होता है, उसकी रचना स्वयं उस विचारधारा से निकलती है और उसी में नहायी हुई होती है; लेकिन कलाकार की यथार्थ के चित्रण के प्रति निष्ठा के साथ उसके विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों का एक तनाव होता है। यह तनाव ही उसकी कलात्मक रचना को सच्ची कलात्मक रचना बनाता है। इस तनाव के कारण, जहाँ एक ओर कलाकार की बुर्जुआ या पेटी-बुर्जुआ विचारधारा उसकी दृष्टि को बाधित करती है, वहीं दूसरी ओर यथार्थ के प्रति उसकी निष्ठा के कारण यथार्थ का एक अधूरा चित्र, लेकिन सच्चा और ईमानदार चित्र, उसकी रचना से निखरकर सामने आता है। कलाकार, उसकी विचारधारा और सामाजिक यथार्थ के बीच मौजूद ये अन्तरविरोध ही कलाकार के आन्तरिक द्वन्द्व को भी पैदा करते हैं। ठीक ये ही रिश्ते कला को और आम तौर पर कलात्मक अधिरचना को अपेक्षाकृत अधिक सापेक्षिक स्वायत्तता देते हैं।
लेनिन ने तोलस्तोय पर लिखे अपने लेखों में दिखलाया कि एक ओर तोलस्तोय का सामाजिक वर्ग कुलीन अभिजात्य वर्ग था, लेकिन लेनिन के ही शब्दों में वे “रूसी साहित्य के असली मुझिक (किसान) थे”। यानी, तोलस्तोय ने कुलीन अभिजात वर्ग से आने के बावजूद सचेतन तौर पर किसान वर्ग की वर्ग अवस्थिति को, उसके विद्रोह को और साथ ही उसके आत्मसमर्पण को, उसके विरोध को लेकिन साथ ही उसके प्रत्यावर्तन (retreat) को भी अपनाया था। उनकी विचारधारा, यानी ईसाई मानवतावाद और शान्तिवाद (quietism) की विचारधारा थी। यह विचारधारा उन्हें बहुत-सी चीज़ों के प्रति अन्धा बनाती थी, जैसा कि लेनिन ने बताया। मसलन, रूस में बुर्जुआ वर्ग की शक्तिमत्ता का उभार और नेतृत्वकारी राजनीतिक क्षमता रखने वाली एक नयी शक्ति के रूप में सर्वहारा वर्ग का उभार। लेकिन उनकी इन अन्धताओं और चुप्पियों का विकूटीकरण भी बहुत-सी ऐसी चीज़ें उजागर करता है, जो रूस के सर्वहारा वर्ग और क्रान्तिकारियों के लिए समझना आवश्यक था। इसीलिए लेनिन कहते हैं, “तोलस्तोय की चुप्पियाँ अर्थपूर्ण हैं।”
लेनिन दिखलाते हैं कि तोलस्तोय की यथार्थ के प्रति निष्ठा सामाजिक यथार्थ के कई तत्वों को उनके विचारधारात्मक फिल्टर से छनकर आने को मजबूर कर देती हैं। मानो यथार्थ का ईमानदार चित्रण कलाकार के विचारधारात्मक स्वप्न को भंग कर देता है, या उसमें विघ्न डाल देता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ठीक इसी प्रक्रिया में तोलस्तोय की विचारधारा भी उनकी कलात्मक रचना के द्वारा ही अनावृत्त कर दी जाती है। निश्चित तौर पर, विचारधारा की समूची आलोचना पेश करने का काम कला का नहीं है। वह तो विज्ञान का काम है। कला हमें देखना सिखाती है, जबकि विज्ञान हमें समझना सिखाता है।
सच्ची कला का प्रकार्य विचारधारा से ही पैदा होकर, उसी विचारधारा को पाठक/दर्शक/श्रोता के समक्ष अनावृत्त कर देना है। कला यह काम एक आन्तरिक दूरस्थीकरण (internal distantiation) के ज़रिये करती है। इसलिए कला एक आईना है, लेकिन एक टूटा हुआ आईना है, जो यथार्थ के एक हिस्से की अधूरी, विखण्डित छवि पेश करता है, लेकिन यह छवि झूठी नहीं होती। यह यथार्थ के एक खण्ड के सच्चे चित्रण के ज़रिये उस विचारधारा को भी अनावृत्त कर देती है, जिसमें कि वह ख़ुद नहायी होती है, और उस खण्डित व अधूरे चित्र के ज़रिये वह सामाजिक अन्तरविरोधों के समुच्चय (ensemble) को भी उजागर कर देती है।
इसलिए कला स्वयं विचारधारा (छद्म चेतना के अर्थ में, यानी विज्ञान के विपरीत के अर्थ में) नहीं है जो दुनिया की एक फेटिशिस्टिक तस्वीर पेश करती है। वह निश्चय ही विचारधारा से ही जन्म लेती है, लेकिन यथार्थ के प्रति अपनी निष्ठा के कारण वह विचारधारा से एक आन्तरिक दूरस्थीकरण भी करती है और इसी प्रक्रिया में वह उस विचारधारा को भी अनावृत्त कर देती है, जिससे वह जन्मी होती है और सामाजिक यथार्थ का भी एक अधूरा, टूटा हुआ लेकिन सच्चा चित्र पेश करती है। इसीलिए लेनिन ने एवरचेंको के बारे में गोर्की को लिखे पत्र में कहा था कि विचारधारात्मक और दार्शनिक तौर पर प्रतिक्रियावादी कलाकार की कलात्मक रचना भी हमारे सामने यथार्थ की सीमित और अधूरी, लेकिन सच्ची तस्वीर, पेश कर सकती है। तोलस्तोय व बाल्ज़ाक की कला ने उन्हें अपनी विचारधारा को छोड़ने पर मजबूर नहीं किया था, वे अपनी विचारधारा के प्रति अन्त तक निष्ठावान बने रहे थे। या वे इसलिए महान कलाकार नहीं थे, क्योंकि कला सृजन करते समय वे विचारधारा का ओवरकोट उतार देते थे। लेकिन एक सच्चे कलाकार के तौर पर उनकी अवस्थिति उनकी विचारधारा और उनके बीच ही एक तनाव को जन्म देता है और उनकी कलात्मक रचनाओं की महानता का स्रोत यह तनाव ही होता है। इसी प्रकार लेनिन ने 1921 में लिखे एक लेख सक्षम रूप से लिखी गयी एक छोटी किताब में कहा था कि विचारधारात्मक रूप से प्रतिक्रियावादी लेकिन अच्छे लेखकों का होना बिल्कुल सम्भव है।
यथार्थ के प्रति उनकी निष्ठा (यदि वे सच्चे कलाकार हैं) उनकी विचारधारात्मक वर्ग अवस्थिति और उनकी कलात्मक रचना के बीच अन्तरविरोध को जन्म देगी और यही उनकी कलात्मक रचना को उनकी विचारधारा के सीमान्तों का अतिक्रमण करने में और ठीक इसीलिए उस विचारधारा को अनावृत्त कर देने में सक्षम बनाता है। दो कथन हैं जिन्हें ब्रेष्ट ने कहा था। पहला: “मार्क्स वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मेरे नाटकों को समझा!” और दूसरा: “मार्क्स की ‘पूँजी’ पढ़ने के बाद मुझे मेरा नाटक ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ समझ आया!” दूसरे शब्दों में, यथार्थ स्वयं मार्क्सवादी है। यदि कोई कलाकार यथार्थ के ईमानदार और सच्चे चित्रण के प्रति निष्ठा रखता है, तो उसकी कला में यथार्थ किसी न किसी हद तक और किसी न किसी रूप में, उसकी विचारधारा के फिल्टर से छनकर, आयेगा ही और इसी प्रक्रिया में उसकी विचारधारा को भी अनावृत्त करेगा ही। एक सर्वहारा कलाकार भी अपनी कलात्मक रचना के सृजन के समय अपनी मार्क्सवादी विचारधारा का सचेतन तौर पर हर पल इस्तेमाल नहीं करता और न ही कर सकता है, यदि वह वाकई एक कलात्मक रचना का उत्पादन कर रहा है। वह सिर्फ़ एक मायने में तमाम बुर्जुआ कलाकारों से बेहतर स्थिति में होता है, वह यह कि उसकी विचारधारा और वास्तविकता के उसके चित्रण के बीच उस प्रकार का अन्तरविरोध और तनाव नहीं होता है, जैसा कि एक बुर्जुआ कलाकार के मामले में होता है, क्योंकि मार्क्सवादी दर्शन एक वैज्ञानिक विश्वदृष्टि और पद्धति का नाम है और मार्क्सवादी विज्ञान समाज के गति के नियमों का संधान करता है और ठीक इसीलिए यथार्थ के सच्चे और ईमानदार चित्रण के साथ उसका उस प्रकार का अन्तरविरोध नहीं होता जिस प्रकार का अन्तरविरोध किसी बुर्जुआ या पेटी-बुर्जुआ विचारधारा का होता है। अपने उक्त कथनों में, ब्रेष्ट ने लेनिन की कला और विचारधारा के बीच रिश्तों की समझदारी को बख़ूबी दुहराया है।
समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर लेनिन का चिन्तन: महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के युगान्तरकारी सिद्धान्त के भ्रूण
सोवियत रूस और फिर सोवियत यूनियन में समाजवाद की जटिल समस्याओं के मौजूद होने के ऐतिहासिक कारण थे। यह समाजवादी क्रान्ति एक ऐसे देश में हुई थी, जहाँ 85 प्रतिशत आबादी किसान आबादी थी, करीब 10 से 11 प्रतिशत आबादी मज़दूर आबादी थी और बाकी क़रीब 5 प्रतिशत आबादी शोषक वर्गों यानी पूँजीपतियों और भूस्वामियों की थी। युद्ध, अकाल, आर्थिक ध्वंस, मज़दूरों व किसानों के तात्विक आन्दोलनों और नयी और कमज़ोर बुर्जुआ आरज़ी सरकार के बरक्स सोवियतों के रूप में ‘दोहरी सत्ता’ के अस्तित्व में आने से पैदा विशिष्ट सन्धि-बिन्दु में रूस में क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा हुई। लेनिन ने ख़ुद इन दो कारकों को चिह्नित किया था। इन विशिष्ट परिस्थितियों में रूस में समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देना यूरोप के अन्य उन्नत पूँजीवादी देशों के मुकाबले सरल था, लेकिन एक ऐसे देश में समाजवादी व्यवस्था और सर्वहारा अधिनायकत्व को टिका पाना बेहद जटिल था।
रूसी क्रान्ति की बहुत-सी समस्याएँ इस विशिष्ट ऐतिहासिक और सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ से पैदा होती थीं। मसलन, क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी सत्ता एक रैडिकल बुर्जुआ भूमि कार्यक्रम ही लागू कर सकी, हालाँकि साथ में उसने उजरती श्रम पर प्रतिबन्ध भी लगाया और इस रूप में समाजवाद की ओर प्रारंभिक कदम भी उठाये। 1930 से 1936 के बीच में खेती के क्षेत्र में समाजवादी सम्पत्ति-सम्बन्ध स्थापित हो पाये। इसी प्रकार छोटे से छोटे उद्योगों का राष्ट्रीकरण पूरा करने में सोवियत रूस को दो वर्षों का समय लगा। शुरुआत में, लेनिन के ही अनुसार, कार्यभार था सर्वहारा अधिकनायकत्व को सशक्त बनाना, प्रतिक्रियावादियों को कुचलना, आर्थिक विसंगठन को रोकना, समूची अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय एकाउंटिंग के मातहत लाना, बैंकों व बड़े उद्योगों का राष्ट्रीकरण करना, विदेश व्यापार पर राजकीय इजारेदारी स्थापित करना: ये ही ‘समाजवाद की ओर कुछ प्रारम्भिक कदम’ थे। यह दीगर बात थी कि साम्राज्यवादी घेरेबन्दी और उनकी मदद और शह पर घरेलू प्रतिक्रियावादियों द्वारा चलाये गये गृहयुद्ध की प्रक्रिया में सोवियत सत्ता को इससे आगे जाकर ‘युद्ध कम्युनिज़्म’ की नीतियाँ लागू करनी पड़ीं और वक़्त से पहले बहुत से कदम उठाने पड़े। बुखारिन, त्रॉत्स्की व कई “वामपंथियों” की ग़लती यह थी कि उन्होंने यह समझ लिया कि अब ऊपर से सर्वहारा राज्यसत्ता द्वारा बलपूर्वक समाजवादी रूपान्तरण के काम को द्रुत गति से आगे बढ़ाया जायेगा और ‘युद्ध कम्युनिज़्म’ उसके लिए सही नीति है। लेनिन ने 1920-21 में, गृहयुद्ध में निर्णायक विजय के बाद, यह घोषणा की कि यह समाजवादी निर्माण की आम नीति नहीं हो सकती। समाजवाद का निर्माण मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता का काम होता है। पार्टी और राज्यसत्ता को उसमें नेतृत्व देना होता है। ‘युद्ध कम्युनिज़्म’ हमारे ऊपर परिस्थितियों द्वारा थोप दिया गया था। इसके कारण, न सिर्फ धनी किसानों बल्कि मँझोले किसानों के वर्ग से सर्वहारा सत्ता का काफ़ी हद तक अलगाव हुआ था। इसलिए ‘नयी आर्थिक नीतियों’ (NEP) के रूप में एक रणनीतिक रिट्रीट ज़रूरी था, जिसमें मँझोले किसानों की आबादी को फिर से राजनीतिक तौर पर जीतना होगा और इस दौरान उन्हें कई बुर्जुआ छूटें देनी होंगी, मसलन, तय जिंस कर (tax in kind) की वसूली के बाद बचने वाले समस्त उत्पाद को खुले बाज़ार में बेचने की आज्ञा देना। ज़ाहिर है, इससे समाज में बुर्जुआ तत्व जैसे कि निजी व्यापारी व धनी किसान तथा कुलक मज़बूत होंगे। लेकिन लेनिन ने बताया कि अगले रणनीतिक ऑफेंसिव के लिए अभी इस रणनीतिक रिट्रीट की सोवियत सत्ता को आवश्यकता है, वरना रूस जैसे देश में उसे टिका पाना ही असम्भव हो जायेगा।
लेनिन ने आगे सामान्यीकरण करते हुए कहा कि समाजवादी व्यवस्था का निर्माण लगातार रणनीतिक आक्रमण और रणनीतिक रिट्रीट के द्वन्द्व के साथ ही आगे बढ़ सकता है। कुंजीभूत कड़ी यह समझना है कि समूचे समाजवादी संक्रमण का दौर भी वर्ग संघर्ष का ही दौर होता है, इस फ़र्क के साथ कि अब सर्वहारा वर्ग सत्ता में होता है। लेकिन बुर्जुआ वर्ग अन्तर्धान नहीं हो गया होता! वह समाज में मौजूद होता है और अपने खोये हुए स्वर्ग को फिर से हासिल करने की हर सम्भव कोशिश करता है। रूस की विशिष्टता को छोड़ भी दिया जाय, तो रूसी कम्युनिस्टों के समक्ष यह स्पष्ट होने लगा था कि समाजवादी संक्रमण की अवधि पहले की अपेक्षाओं के मुकाबले कहीं ज़्यादा लम्बी होगी और न सिर्फ़ रूस जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े पूँजीवादी देश में बल्कि उन्नत पूँजीवादी देशों में भी।
लेनिन ने अपने जीवित रहते समाजवाद के प्रयोग के अनुभवों का समाहार करते हुए बताया कि समाजवादी संक्रमण की यह सुदीर्घ अवधि वर्ग संघर्ष की अवधि होगी, जिसमें पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावना बनी रहेगी। लेनिन ने बताया कि समाजवादी समाज में माल उत्पादन जारी रहता है जो हर घण्टे पूँजीवादी तत्वों को उत्पादित और पुनरुत्पादित करता रहता है। वहीं बुर्जुआ विचारधारा का प्रभाव भी अभी व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों में बना रहता है। पार्टी और राज्यसत्ता के भीतर समाज में जारी वर्ग संघर्ष के प्रतिबिम्बन के तौर पर ही नौकरशाहाना विरूपताएँ और बुर्जुआ विकृतियाँ पैदा होती रहती हैं, जिनके विरुद्ध मज़दूर व मेहनतकश जनसमुदायों की राजनीतिक पहलक़दमी को खोलकर ही संघर्ष किया जा सकता है। लेनिन ने एक ओर अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का खण्डन करते हुए कहा कि समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में पार्टी ही सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण हो सकती है, वहीं उन्होंने त्रात्स्की के ‘पार्टी की अचूकता’ (infallibility of the party) के सिद्धान्त का भी खण्डन किया और बताया कि मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता से कटकर पार्टी भी सही राजनीतिक लाइन से विपथगमन कर सकती है, क्योंकि शिक्षक को सिखाने से पहले सीखना होता है और सही लाइन को सूत्रबद्ध करने के लिए व्यापक मेहनतकश जनता से पार्टी का सतत् सम्बन्ध बना रहना अनिवार्य होता है। यही कार्य अर्थवाद के भटकाव के कारण सोवियत यूनियन में सुसंगत रूप में नहीं हो सका, जिसका परिणाम अन्तत: पार्टी में बुर्जुआ मुख्यालय के मज़बूत होने के रूप में सामने आया, जिसके खिलाफ़ स्तालिन लक्षणात्मक तौर पर निरन्तर संघर्ष करते रहे, लेकिन स्वयं यांत्रिक चिन्तन व अर्थवाद के प्रभाव के कारण वे इसके ख़िलाफ़ सैद्धान्तिक संघर्ष चलाने का कार्य सुसंगत रूप में नहीं कर सके। स्तालिन वह आखिरी दीवार थे, जिसके गिरने का इन्तज़ार पार्टी के भीतर अपने आपको सुदृढ़ कर चुके पूँजीवादी पथगामी कर रहे थे। स्तालिन की मृत्यु के तीन वर्ष बाद ही ख्रुश्चेव ने सोवियत यूनियन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की घोषणा कर दी।
समाजवादी संक्रमण की समस्याओं की सामान्य रूप में पहचान करने के अतिरिक्त लेनिन ने रूस की विशिष्ट परिस्थितियों में समाजवाद की समस्याओं की शिनाख़्त की और उन्हें हल करने के लिए सही सर्वहारा राजनीतिक लाइन और नीतियों को सूत्रबद्ध किया। लेनिन के चिन्तन के ये सिरे उनकी असमय मृत्यु के साथ अधूरे ही छूट गये और उन्हें पकड़कर विकसित करने और आगे बढ़ाने का कार्य आगे चलकर माओ त्से-तुड. ने किया।
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लेनिन के उपरोक्त अवदान युगान्तरकारी अवदान हैं। विशेष तौर पर, साम्राज्यवाद के युग में सर्वहारा क्रान्ति की नयी रणनीति और आम रणकौशल को पेश करना और मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान को एक नये चरण में विकसित करना सामग्रिक रूप में लेनिन के वे योगदान थे, जिनके आधार पर हम मार्क्सवादी दर्शन, विज्ञान और राजनीति के विकास के एक नये चरण की बात करते हैं और स्तालिन से सीखते हुए साम्राज्यवाद के युग के मार्क्सवाद को लेनिनवाद का नाम देते हैं। ये अवदान अधिभूतवादी तरीके से नहीं समझे जा सकते हैं। लेनिन के दर्शन के क्षेत्र में किये गये इज़ाफ़े का सीधे तौर पर उनके साम्राज्यवाद के सिद्धान्त, संशोधनवाद की उनकी आलोचना, पार्टी के उनके सिद्धान्त और उनके कलात्मक सिद्धान्त से रिश्ता है। ठीक उसी प्रकार उनके साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से ही दूसरे इण्टरनेशनल की उनकी सुसंगत आलोचना भी निकलती है। हम इन अवदानों को अलग-अलग कर समझने का अकादमिक प्रयास करेंगे, तो हम उन्हें कभी नहीं समझ सकते। लेनिन के चिन्तन को उसकी एकता में ही समझा जा सकता है।
ज़ाहिर है एक छोटे-से पेपर में लेनिन के अवदानों पर समग्रता में चर्चा कर पाना सम्भव नहीं है। हमने केवल उनके सबसे प्रमुख अवदानों पर चर्चा की है। उसमें भी दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान और साम्राज्यवाद के उनके सिद्धान्त पर हमने अपेक्षाकृत ज़्यादा लम्बी चर्चा की है। निश्चित ही, केवल कृषि प्रश्न, किसान प्रश्न, संकट के सिद्धान्त पर अल्पउपभोगवाद की आलोचना, राष्ट्रीय प्रश्न, भाषा के प्रश्न और समाजवादी संक्रमण पर उनके चिन्तन पर अलग किताबें लिखी जा सकती हैं और लिखी गयी हैं। लेकिन हमारा लक्ष्य इस पेपर में बेहद विनम्र था: आज जब दुनिया भर में कम्युनिस्ट आन्दोलन एक संकट का शिकार है और वहीं वैश्विक पूँजीवाद भी दीर्घकालिक मन्दी से गुज़र रहा है, जो बीच-बीच में गम्भीर संकटों के रूप में फूट पड़ती है; जब दुनिया में तमाम स्वत:सफूर्त पूँजीवाद-विरोधी जनउभार हो रहे हैं, लेकिन किसी राजनीतिक विकल्प, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में वे कालान्तर में बिखर जा रहे हैं; जब साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा तीखी होती जा रही है और विश्व भर में तमाम युद्ध के थियेटरों का निर्माण कर रही है; ऐसे समय में यह स्पष्ट करना कि आज लेनिन को याद करने का मतलब क्या है? आज हमारे लिए लेनिन के नाम का मतलब क्या है?
आज हमारे लिए लेनिन के नाम का अर्थ है: प्रतिकूल समय में सर्वहारा आत्मविश्वास के साथ सत्य की राजनीति पर अडिग रहना और जनता पर भरोसा रखना; एक हिरावल पार्टी की ज़रूरत को बार-बार रेखांकित करना और दुहराना क्योंकि इसकी अनुपस्थिति में ही हालिया वर्षों में ‘क्रान्ति के कई क्षण’ बेकार चले गये और ‘सज़ा में हमें दक्षिणपंथ, प्रतिक्रिया और फ़ासीवाद’ मिला (यहाँ हम पिछले डेढ़ दशक के मिस्र, ट्यूनीशिया, तुर्की, श्रीलंका आदि को याद कर रहे हैं); अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद (अर्थवाद का वाम पक्ष) और संशोधनवाद (अर्थवाद का दक्षिणपंथी पक्ष), दोनों के ही ख़िलाफ़ समझौताविहीन संघर्ष चलाना, क्योंकि ठीक ये ही विजातीय बुर्जुआ व पेटी-बुर्जुआ राजनीतिक प्रवृत्तियाँ सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग के समक्ष नि:शस्त्र कर देती हैं और उसे एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित नहीं होने देतीं; आज विशेष तौर पर इन प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष तीव्र करना क्योंकि आज ये पूरी दुनिया के ही कम्युनिस्ट आन्दोलन में नये सिरे से सिर उठा रही हैं; साम्राज्यवाद की समूची ऐतिहासिक परिघटना के सारतत्व को समझना और आज के दौर में उसमें आये परिवर्तनों को समझना और उसके अनुसार सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल में आने वाले बदलावों को समझना; और सबसे अहम, जो कि इन सारी सीखों का सार है, ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करना।